Friday, October 2, 2020

*समवेत स्वर*  चन्द्ररेखा सिंह 

जीवन को समवेत स्वरों मे गाओ तो ,पीड़ा से दुखते मन को सहलाओ तो ,

अपनो मे तो अपनापन पा लेते  सब ,तुम ग़ैरों मे भी  अपनापन  पाओ  तो ,

जीने का अन्दाज़  नया  पा जाओगे  ।

अधियारों  से  भी  प्रकाशकण  फूट रहे इन्हे  तराशो , काट छांट  कुछ नया  गढ़ो ।

इकलेपन  की स्याही  और हुई  गाढ़ी  ,लसन्नाटों ने  लिखा बहुतकुछ उसे पढ़ो ,

अपनो बेगानों  का  सच  पा जाओगे  ।

अपनी  सीढ़ी स्वयं बनाओ और  चढ़ो ,अपनी राहें स्वयं बनाओ और  बढ़ो  ,

हार जीत  के  पैमाने सब  बदल  चुके ,संघर्षो का शोर कह रहा लड़ो  लड़ो  ,

विजयवधू  की वरमाला  पा जाओगे  ।

अपनी लघुता  का  अनुमान  लगाओ तो ,मन से  प्रभुता का अभिमान हटाओ तो  ,

ऊंचाई पर रहोभले नत  शीष  रखो  ,कल्याणी धरती का  दर्द  मिटाओ  तो  ,

सत्  चित्  औ आनन्द  सभी  पा जाओगे  ।

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लेखिका श्रींमती अलका मधुसूदन पटेल

ज्ञानदीप

अंतस का दीप जलाओ , तुम प्रकाशपुंज बनो।तिमिर छाया है चहुँ ओर, किरण आलोक बनो। 

अपनी राह बनाओ और बढ़ो ,बनो अग्निशिखा,संघर्षों से लड़ो औ नित बढ़कर उत्कृष्टता चुनो।

अंधेरे तो हैं, घेरेंगे, रहेंगे, वे बार-बार टकराएंगे ।कुटिलता से हम डरेंगे ,हर पल उतना डराएंगे।

अंधेरे केवल रातके नहीं,मनके अंदर भी होते हैं,दूरकरो प्रज्ञा से ,साहसी बन विश्वास जगाएंगे।

वेदना के स्वर भूलकर ,समवेत गीत गुनगुनाना।सन्नाटों को हंसी खुशी के, सुपलों में है बदलना।

दुर्बलता नहीं,सबलता सेअब कदमों को बढ़ाना,सपने पीछे छूट गए ,अब है विजयरथ ही पाना।

अपनों में बेगाना, गैरों में अपनेपन को पाओगे।स्व प्रभुता-लघुता में रचकर स्नेहदीप जलाओगे।

ऊंचाई पर रहकर भी, जमीन में बोध फैलाओगे , अपनी खुशी ,धरणी में बांट आनंदमय बनाओगे।

नन्हा सा दीपक तुम्हारा,देखो प्रकाश बांट रहा।ज्योतिअखंड बन सुंदर, ज्ञानचक्षुओं से हो हरा।

होँगे दूर अंधियारे,ज्योति से तुम्हारी हो पल्लवित बने प्रकाश दीपमाला ,हैं, देखो दे रहे उजियारा।

2    'विजित'

करना  होगा  संघर्ष ,पाने को नवउत्कर्ष।

चुनौतीसे जो जुझौगे , तब चुन पाओगे हर्ष।

सत्य से  हटना नहीं, दम्भ से  घिरना नहीँ।

लालसाएं रोकेंगी पथ, लेनी होगी तुम्हें शपथ।

मार्गच्युत  होना नहीं, बाधाओंसे डरना नहीं।

संकट करेंगे विचलित, करना  स्व प्रकाशित।

अपनी दिशा पहचानो, लक्ष्य  उद्देश्य बनाओ।

निर्बंध  निर्बाध  बढ़ो, उन्नति की सीढ़ी चढ़ो।

ध्येय-अविरल लक्षित जिंदगी सहज 'विजित'


3 *रंगों की कैसी है ये बौछार*

अब त्यौहार कहाँ रहा रे भाई, कहाँ रहा है त्यौहार।

भाव भंगिमा शब्द बदलते जाते नहीं बचा ब्यौहार।

 मन अब बदल चले है छद्म रंगों से बन रहे रंगदार।

मिलते अमर्यादित आचरण गंदे शब्दों की बौछार। 

राजनीति के रंगों ने ह्रदय बदला-बदल दिया है प्यार। 

सीधे सादे लोग भी अनजाने झेल रहे हैं वार पे वार। 

नित कड़वी बोली,होती फीकी गुजिया ओ रंग-धार। 

मिठाई बदलती खटाई में ,बदरंग हो बनते हथियार।

अब त्यौहार कहाँ रहा रे भाई , कहाँ रहा है त्यौहार। 

बुनने होंगें फिर सतरंगी सपने, वही मान ओ मनुहार।

कल्पनाओं के क्षितिजों से ,अनुबंधों के सुंदर से हार।

चलो फिर ढूढें रस रंगों के, रिश्ते नए संकल्पों केद्वार।

स्वाद बदलें जिंदगी का, जीभ का ,मिलें नए आचार।

ख़ुदी को करें बुलंद ,लौटा लाएं वही रंगीला त्यौहार।

आएगी फिर वही सूंदर होली की रंग बिरंगी बौछार । 

अलका मधुसूदन पटेल ।

खिलकर सुमन,बोल रहे खुशबू से,खुशबू बिखरे , कह उठी भौरों से।

भौंरे करें गुंजन,बोलें तितलियों से,तितली उड़ी कहने अम्बर मेघों से।

बदरेझिलमिल,भीगाआंगन जलसे,आया सावन, हां नागपंचमी आयी।

जन्मदिवस की सुखद बेला हैआयी,अर्पणकर पुष्प,अद्भुत शक्ति हैपाई।

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मानता हूँ यह बहुत पहले नहीं मैं जान पाया, कौन सी प्रतिभा छिपी मुझमें, नहीं पहचान पाया, पर समय अब भी बचा है, अब कलम झकझोरती है, मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है। इक पहेली जिंदगी, मुझसे सुलझती ही नहीं थी, आग थी मुझमें छिपी, पर वह सुलगती ही नहीं थी, और यह दुनियां भी मेरा साथ अब तो छोड़ती है, मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है।

 २। बंद द्वार खुलने दो -------


दीप जला और झरने लगा प्रकाश 

प्रगट हुआ ,  दिव्यता का विभास।

एक एक किरण, कर आनंद का वरण 

कर रही नर्तन , होने लगा परिवर्तन।

अंधकार सिमटने लगा,उजियारा छिटकने लगा।

बज उठा एक तारा,मिटा अंतस अंधियारा।

बिन गाये  गीत ,अददृष्य बना मीत।

चलो चलें ,करें दीपशिखा का अभिनंदन ।

करें हर किरण का वंदन,

 होश में आना है ,कर प्रवेश बोध में 

बोध हो जाना है ,बोध ही जीवन है ।

वही है सत्य वरण ,वही है दिव्य चरण।

वही है शांति वही है क्रांति

हर रंग है झर रहा ,प्रकाश है बरस रहा।

हर ओर इंद्रधनुष ,छत को तरश रहा 

फूल फूल ,कूल कूल ,अपना रंग भर रहा।

बोध जब जागेगा तभी कलुष भागेगा 

बंद द्वार खुलने दो ,जीवन को सजने दो।अति महत्वपूर्ण पंक्तियाँ


 1 ईर्ष्या के मारे जब दूसरे ,बुरा सलूक करें मेरे साथ।

निंदा करें गालियां दें मुझे ,सह सकूँ मैं नुकसान और पराजय।

और जीत उन्हें अर्पित कर सकूं।


 2 जिसकी मैंने मदद की और बड़ी उम्मीद से लाभ पहुँचाया ।

वही जब बुरी तरह चोट पंहुंचाए मुझे।

मैं कृतज्ञ होऊं उसका ,मान सकूँ अपना सर्वोपरि गुरु उसे।


3    *अंधेरों की उमर*

जब रगों मेँ 

पसरने लगे अंधेरा ,

औऱ साथ छोड़ दें 

दुनियाभर की

 बिजलियाँ।

प्रवेश करना

 अपने भीतर 

वहां जल रहे होंगे 

सहस्त्रों दिए ।

अंधेरे की उमर 

चार पहर से अधिक 

भला कब हुई ,

खटखटाना 

साहस और धैर्य 

की कुंडियां 

सूरज खुद

दरवाजा खोलेगा।

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आओ सजन वर्षगणना करें

बीते वर्षों का अवलोकन करें

पहला वर्ष आँधियों  की गर्द

दूसरा वर्ष एक संघर्ष

तीसरा वर्ष सुनहरा ख्वाब

चौथे पांचवें हवा हो गए

बिटिया के साथ कहाँ खो गए

ज़िन्दगी मस्त गुज़रने लगी

अभावों में भी रौशन होने लगी

सातवें वर्ष सूरज रौशन हुआ

एक नया मेहमान

ज़िन्दगी में आ गया

परिवार पूरा हो गया

आठवां वर्ष संघर्ष लाया था

बेटे को भारी बताया था

मगर ज़िन्दगी रफ़्तार पकडती रही

जाने कितने मौसम बदलती रही

कभी मौसम आते जाते रहे

कभी ज़िन्दगी में ठहरते रहे

कुछ पतझड़ भी आने बाकी थे

ज़िन्दगी के इम्तिहान बाकी थे

कभी आत्मा लहूलुहान होती रही

कभी ज़िन्दगी से लडती रही

एक छोर तुमने सम्हाला था

दूजा मुझमे समाया था

संघर्षों ने हमको बताया था

ज़िन्दगी फूलों की सेज ही नहीं

काँटों के बाग़ भी मिलते हैं

बचकर चलने वाले ही पार निकलते हैं

अपने परायों की पहचान होने लगी

ज़िन्दगी भी हैरान होने लगी

कभी हम परेशान होते थे

अब ज़िन्दगी परेशान होने लगी

कैसे ये हँस लेते हैं

ज़िन्दगी से लड़ लेते हैं

जीना आखिर हम सीख ही गए

45 वर्ष पल में बीत गए

क्या खोया क्या पाया है

इसका ना हिसाब लगाया है

अब चाहतों की कोई चाहत नहीं

बीते वर्षों के अवलोकन में

एक बात समझ आ गयी

किसी सहारे की आदत नहीं

मगर एक दूजे बिन हम अधूरे हैं

इतना हमें समझा गयी

ज़िन्दगी हमें रास आ गयी


आओ सजन आने वाले कल में

एक नया कल सजायें

अब ज़िन्दगी को उसका मुकाम दिलाएं

जो छूट गया था जीवन में

उसको अब सफल बनाएँ

कुछ अपने कुछ तुम्हारे सपनो का

एक नया जहान बनाएँ 


 ज़िन्दगी की अनुभूतियाँ ज़िन्दगी के साथ रहती हैं और कदम कदम पर एक नया अहसास देती हैं फिर चाहे एक अरसा ही क्यों ना बीत गया हो मगर जेहन में ताज़ा रहती हैं कम से कम वो जिन्हें हम याद रखना चाहते हैं .उन्ही यादों में से कुछ यादें साथ साथ चलती हैं और ले जाती हैं हमें एक ऐसे जहान में जहाँ हम उनसे रु-ब-रु होते हैं तो पता चलता है वक्त तो अभी शायद वहीँ खड़ा है जिसे हम सोच रहे थे कि फिसल गया हाथ से वो तो आज भी उसी दहलीज पर इंतज़ार में खड़ा है कि कब कोई आएगा दिया रोशन करने .


वक्त ने किया क्या हसीन सितम हम रहे ना हम तुम रहे ना तुम...........कितना सही कहा है किसी ने ...........ऐसा ही तो होता है जब एक पौधे को एक आँगन से उखाड़ कर दूजे में रोपा जाता है और फिर वो उस आँगन की हवा , पानी , मिटटी और स्नेह से धीरे धीरे वहाँ खिलना शुरू कर देता है ...........उसे उस आँगन में कोई अपना मिल जाता है जो उसके जीवन में साथी की कमी पूरी कर देता है तो वो उसमे अपना जीवन देखने लगता है और वक्त के साथ वो पौधा एक वृक्ष बन जाता है  मगर साथ चलते चलते उसका साथी और वो पौधा कब एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं पता ही नहीं चलता एक के बिना दूजे का अस्तित्व जैसे अधूरा लगने लगता है ..........कब साथी से एक बहुत अच्छे दोस्त बन जाते हैं उन्हें पता नहीं चलता मगर ये वक्त है ना सब बता देता है जब एक अरसा साथ रहने के बाद एक दूसरे की अहमियत का अहसास होता है.




 अपना रास्ता बनाना होगा। 


रो चुकीं, 'बहुत' सो चुकीं तुम।

डर चुकीं, छलीं जा चुकीं तुम।


जागो ! अब खोने का,सोने का समय है नहीं । 

दृढ़ बन पहला पग बढ़ाओ मिलेगी नई राह यहीं।

चेतना ही नहीं ,स्वयं को जगाना होगा। 

अपने सम्मान केलिए कदम  बढाना होगा। 


करों में परिश्रम लिए,मन में सूंदर स्वप्न लिए। 

सजग सरल मन ,कर्मठ स्वस्थ तन लिए हुए। 

होठों में सुंदर राग मुट्ठी में, आसमान समेटे हुए।

 भावनाओं की छलकती सरिता नेत्रों में लिए।


 *उठो! बढ़ो*! अपनी शक्ति पहचानो,अपने नभ को तोलो।

 विराट जगत की स्वामिनी हो तुम,बंद हैं कपाट,अब खोलो। 

बहुत सो चुकीं, बहुत रो चुकीं बहुत छलयात्री बन चुकीं तुम। 

बहुत रहीं मौन व्यथित, वेदना त्याग,बनालो नया जीवटतुम! 


साजिशों से घिरीं, बंदिशों में बंधी,रहीं गुमराहगलत राहोंमें। 

अंत करो! इस भेद नीति का, करो मेधा ज्वलंत मशालों में।  

उठाना ही होगा, पहला चरणअपनी आस्था विश्चास से।

बचाने अस्तित्व अपना ,हां जूझना पड़ेगा सामने डर से। 

  

सभी मत, भ्रम, लालच,मोह -माया स्वार्थों को त्यागो तुम। 

अबला नहीं,कर्तव्य व शक्ति कीअपूर्व सामर्थ्य हो तुम। 

परछाइयों से बाहर निकल। अपना आशियाँ बनाना होगा। 

लगेगा पगपग अड़ंगा तुमको उनसे टकराना होगा । 


ना घबराना,हुलसाना आशाएं, अपेक्षाएं,आस्थाऐं तलाशना।

धरा से आकाश तक की यात्रा है तुमको अब करना। 

लो कुछ कर दिखाने का *संकल्प* बनो *अग्निशिखा*! 

बनके प्रचंड देवी दुर्गामां जैसी अंत करो राह के राक्षसों का। 

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अलका मधुसूदन पटेल

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 आस्थाऔं के बीज

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  मेरे पास ढेर से

 आस्थाऔं के बीज हैं

  इन बीजों को

 अपनी मुट्टियों में भर कर

 छिटकते हुये  चलना तुम

 सुनो,,,,

मेरे पास एक तेज़ धारदार

विद्रोह का हंसियाँ भी है

जहाँ कहीं भी तुम्हेंं  दिखाई दे

बारुद की फसल़

दुई और द्वैष की फसल

 अंहकार की फ़सल

जहाँ हो जुल्म बलात्कार

देश द्रोही चाटुकार

इस तेज़धार हँसिया से काट कर 

उस सुनी धरती पर

आस्थाऔं के बीज़ छिड़क देना......

SONIYA

   


Tuesday, October 9, 2012

अलका मधुसूदन पटेल ,लेखिका+साहित्यकार.


नारी सशक्तिकरण-----

IF YOU WISH TO REACH THE HIGHEST ,BEGIN AT THE LOWEST

*नारी महिमा* -

प्रभु सत्ता की प्रबल शक्ति ,अति मानवता का अतुल विकास.
पूर्ण विश्व की जन्मदायिनी ,विधि संस्कृति का सफल प्रयास.
देवगणों की वन्दनीय नित , हरी की एकमात्र छाया.
नारी की सत्ता इस जग में , नारी की ही है माया.

*आवश्यकता* -

आज की परिस्थितियों में नारी शक्ति को अपनी पहचान बनाने के लिए अपनी विशिष्टता का अहसास करके आत्मबल बढ़ाना होगा. जिसके लिए बचपन से बच्ची के मन में आत्म-विश्वास जाग्रत करना होगा. प्राचीन समय से चली आ रही प्रथाओं और लड़कियों के प्रति समाज में अपनाये जा रहे दोहरे मापदंड-शोषण को कम करने हेतु आवाज उठाना ही होगा. इसके लिए आत्म-निर्भरता की ओर कदम बढ़ाने होंगे. इसके लिए बालिका के अपने परिवार में जन्म लेते ही उसकी शिक्षा -देखरेख में भेदभाव नहीं रखकर समानता लाना होगा. जिस भी विषय में उसकी रूचि हो उसी में पूर्ण शिक्षिता बनने से न केवल उसका आत्म सम्मान वरन उसके परिजनों का सम्मान बढेगा.ज्ञातव्य है जब हमारा आत्मबल जाग्रत होता है तो दुनिया की समस्त शक्तियां छोटी पड़ जाती हैं .नारी-शक्ति को स्वयं इसका अहसास कराना होगा.  यदि एक बालिका का प्रारंभ से सही पालन-पोषण किया जाये तो वह एक पुरुष से कहीं पीछे नहीं है. हाँ प्रकृति प्रदत्त शारीरिक कोमलता उसकी कमजोरी नहीं संसार का अद्भुत वरदान होता है. सदियों से महिलाओं को वैश्विक स्तर में भी समाज के हाशिये पर रखा जाता रहा है. उनका सिर्फ शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक - भावनात्मक तरीके से मजबूरी व मासूमयित का फायदा उठाये जाता रहा है. उनको आधी दुनिया तो बोला जाता है पर उनको हाशिये में रखकर उनके मानव-अधिकारों तक से वंचित रखा जाता रहा है.

मेहनत तो रंग लाती है चट्टान तोडिये ,पावन पसीना ही तो गंगाजल का रूप है.

*चैतन्यता* -

उठी है मन में तरल तरंग ,भरे उत्कर्षित अंग उमंग.
हमीं हैं भारत की ललना ,प्रण जो कभी न टलना.

आज सामाजिक,सांस्कृतिक ,पारिवारिक मूल्यों में निरंतर चेतना बढ़ रही है, परिवेश बदल रहे हैं. वास्तव में समाज में भी कर्तव्यबोध की भावना बढ़ रही है धीरे-धीरे ही सही. महिलाऐं अपने आप को सक्षम बनाकर पुरुष वर्ग के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं. अतः अब परिवारों में भी लड़की होने को अभिशाप नहीं मानने वालों की संख्या में वृद्धि निश्चय ही हो रही है. मुख्यतः नव-युवा वर्ग अपनी छाप छोड़ने में सशक्त बना है. समाज के लगभग हर क्षेत्र में बहुत तेजी से महिला शक्ति अपना स्थान बढाती जा रही है. अपनी योग्यता से उसने अपना इतना ऊँचा स्थान बना लिया है. लोग उसका मान करने लगे हैं ,उसके आधीन काम करने से गुरेज नहीं कर सकते क्योंकि अपनी शक्ति पहचान के नारी ने स्वयं को उत्कृष्ट बना लिया है. कह सकते हैं उसकी दुनिया बदल रही है, जिसकी वह स्वयं हक़दार है. संघर्ष करके अपना यह स्थान वह स्वयं बना रही है.

*सामाजिक परिवर्तन* -

हमारी ही मुठ्ठी में है आकाश सारा,जब भी खुलेगी तो चमकेगा तारा.
कभी न ढले वो ही सितारा, दिशा जिससे पहचाने ये संसार सारा.

पुरुष वर्ग के साथ परिवार में अब विशेषकर महिलाओं को भी अपनी पुत्रियों के लिए या बालिका के लिए अपना नजरिया बदलना होगा क्योंकि जीवन की जिन कठिनाइयों से वे बड़ी-पली हैं ,उनको लगता है की उनकी पुत्री को भी वही कष्ट न हो. उनकी खुद की जिंदगी में वे जिस कमी ,भेदभाव,शोषण या ना-इंसाफी का शिकार हुईं हैं ,होती रही हैं. उनकी बेटी - बहू या समाज की हर बच्ची के साथ न हो. इसीलिए वे अपने परिवार में पुत्री के आगमन से निराशा से भर उठतीं हैं . सर्वप्रथम वे भी किसी भेद-भाव-भुलावे से अपने मुक्त रखें. विशेषकर अपने घर में बेटी-बेटे में कोई भेदभाव नहीं करके उनको समान अवसर दें.
सही मानें तो जब परिवार की मुखिया महिला ही अपने परिवार को सही संस्कार व सामाजिक मूल्यों के साथ बचपन से ही बेटी को पूर्ण जागरूक व सशक्त बनाएगी तो सारे परिवार व समाज में अन्य लोग स्वतः ही अपनी बच्ची को साहसी-योग्य बनायेंगे. उसको उसके अंदर की शक्ति को मनोवैज्ञानिक तरीके से बढ़ावा दिया जाये ना कि प्राकृतिक शारीरिक कमजोरी का अहसास कराके उसका मनोबल कम किया जाये.
हर क्षेत्र में जागरूकता की बहुत जरुरत होती है.उच्च से उच्च शिक्षा दें.

“रबिन्द्रनाथ टैगोर” ने कहा है ,

where the mind is without fear & the head is held high ,where knowledge is free .

*पारिवारिक परिवर्तन* -

अपने परिवार से ही शुरुआत करके व्यापक बदलाव करने होंगे. समाज के हर वर्ग के लिए इस समस्या के निदान ढूंढने होंगे. वैसे भी सर्व-विदित है कि एक बेटी दो कुलों को जोड़ने के साथ ,अपने परिवार से दूसरे परिवार में अपने को आत्मसात करने के बाद भी ( अपनी शादी के बाद) जुडी रहती है पूरा ध्यान रखती है. हाँ हमें अपनी बच्चियों को संपूर्ण सशक्त -सफल -अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता की पहल उसके जन्म से ही शुरू करनी होगी. जब तक हम स्वयं अपने घर में से ही हमारी बच्चियों का आत्मबल बढ़ाने का ध्यान नहीं रखेगे तो किसी जादुई चमत्कार की आशा दूसरे से नहीं कर सकते. अभी हमें बहुत कुछ करना बाकी है.पहला कदम उठाकर समाज में बदलाव होगा ही. हमारी बेटियों को उनकी शिक्षा के साथ अपनी रक्षा की जानकारी भी देनी ही होगी. ऐसे अनेकों माध्यम हैं कि माँ-बाप घर बैठकर भी अपनी पुत्री के प्रति निश्चिन्त बने रहें. बाहरी दुनिया के उतारों -चढ़ावों के साथ उससे सावधानी व फरेबों से बचने के साधन. अच्छे-बुरे,सही-गलत की पहचान से उसके व्यक्तित्व को संवारने की जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभानी होगी.

The future belongs to those who believed in the beauty of their dream .

*हिंसात्मक पहलू* -

इस अँधेरी रात को हरगिज मिटाना है हमें ,इसलिए हर महिला की शक्ति जगाना है हमें.

बाहरी हिंसा व घरेलू हिंसा के साथ समाज में दिनों-दिन बढ़ते हिंसात्मक व्यवहार-बलात्कार से अपनी सुरक्षा व अपने परिवार की सुरक्षा किस तरह की जाये इसकी जानकारी हेतु वृहद उपाय किये जाने होंगे. घरेलू+कामकाजी महिलाओं को अपनी भूमिका सक्षम बनानी होगी ,अपनी बच्चियों को अधिक मूलभूत सुविधा दिलवाने के साथ सतत निगरानी के दायित्व भी निभाने होंगे व उन पर विश्वास करके उनके कर्तव्यों से परिचित कराना होगा ताकि वे किसी गलत लालच या मतिभ्रमित होने से बचें. वे समाज-परिवार व अपनी जिंदगी में सामान्य संतुलन बनाकर निडर होकर अपना जीवन सार्थक सकें. उनके साथ होते अनाचार या ज्यादती को वे खुलकर व अपनी बात कहने में हिचक महसूस ना करें. बालिकाओं की प्रगति व उत्थान के लिए आन्दोलन का प्रारंभ नए तरीके से करना है तो बारम्बार अनेकों अत्याचार व दुर्घटनाओं से हम मात्र विचलित होकर नहीं रहेंगे.

*सशक्तिकरण* -

कंटकों में पथ बनाना सीख लो कठिनाइयों को सरल बनाना सीख लो .
जिंदगी सुखद तुमको लगने लगेगी ,जिंदगी को अच्छा बनाकर देख लो.

आत्म सम्मान से संस्कृति ,धरोहर की रक्षा करके ,सक्षम दृढ संकल्पित होकर नवदीप प्रज्वलित करना है.आज की स्त्रियाँ उच्च स्तरीय उच्चकोटि विराजित हुईं हैं आसमान में उड़ने की कोशिश करें ,पर उनके पैर जमीन पर रहें .झूटे अहम् या घमंड में न आयें. आधुनिक समाज भी जIन चूका है की अब हमारी महिला शक्ति को पिंजरे में बंद रखने का समय जा चूका है. महिला शक्ति एक साथ मिलकर चलें ,इतनी कड़ी मशक्कत से आज वे अपना जो स्थान बना पायीं हैं.  उसमे वे अपनी वैचारिक क्षमता बढाकर  चारित्रिक बल मर्यादा,सीमा ,गरिमा का गौरव सदैव बनाये रखें.

श्रंखलाएं हों पगों में,गीत गति में है सृजन का ,

है कहाँ फुर्सत पलक को ,नीर बरसाते नयन का,

उठो आगे बढ़ो ,ये समय है कुछ कर दिखाने का.

The first step forward ,solving a problem is to begin .

*जयहिंद-जय महिला-शक्ति*.

अलका मधुसूदन पटेल ,लेखिका+साहित्यकार.







Saturday, July 17, 2010

सामाजिक सरोकार
*अपनी संपूर्ण सुरक्षा की पूर्ण चैतन्यता-जागरूकता+कानून सम्बन्धी जानकारी*.
परिवारों में विशेषकर भारतवर्ष में बेटी के जन्म लेते ही ये बात बचपन से उसके मन में भर दी जाती है कि उसके भाई की तुलना में वो शारीरिक स्वरुप में कमजोर है ,बहुत प्रकार के अवरोध(रोक) उसकी कम उम्र से ही लगाना प्रारंभ हो जाते हैं .लड़के की तुलना में उसको कुछ विशेष सावधानी-देखरेख से ही पाला जाता है. जो उसकी मानसिकता को कमजोर बना देते हैं. छोटी सी बच्ची अपने घर में ही अपने आपको हीन या किसी कमी से ग्रस्त मानने लगती है क्योंकि उसके लिए जीवन के हर क्षेत्र में अलग-अलग प्रकार से रोक लगने से उसकी स्वतंत्रता में कमी-बाधक हो जाती है.
बिना जाने ही समाज के प्रति या अपने आसपास वालों के प्रति उसके मन में एक प्रकार चिंता व जाना-अनजाना डर या अलगाव समां जाता है.
ये बिना किसी भेद भाव से समाज के हर वर्ग के लगभग हर छोटे-बड़े ,निम्नवर्गीय-मध्यमवर्गीय-उच्चवर्गीय ,हम-आपके सबके परिवारों में होता है. अधिकांश परिवार अपनी बेटी की सुरक्षा की द्रष्टि से उसपर रोक लगाने को अपने को मजबूर पाते हैं .इस सबके पीछे परिवार का उद्देश्य हर जगह अपनी बच्ची के साथ सिर्फ भेदभाव के लिए ही नहीं होता.व्यक्तिगत नहीं होकर कहीं निःस्वार्थ मजबूरी भी मानी जा सकती है या अपनी बेटी के प्रति अपनी सघन जिम्मेदारी-स्नेही उत्तरदायित्व भी.
हालाँकि हर बात में बारबार ऐसे अड़ंगे-थोड़ी समझ आने पर स्वाभाविक हमको, हमारी बेटियों या नारी शक्ति को अस्वीकार व असंतुष्ट-कुंठित बना देती है.
आज के विचार के अनुसार माना जाये तो घर की बिटिया को एक जिम्मेदार स्वस्थ नागरिक बनने की प्रक्रिया में यही से कमी आ जाती है.
सत्य है कि उसके मानवाधिकार का हनन भी शुरू हो जाता है.
पर इस सबके बीच हमें हमारे समाज के मूलभूत ढांचे के बारे में सोचना पड़ेगा व क्यों ऐसा हुआ है ,होता है या हो रहा है. क्यों ये असुरक्षा की भावना हमारे बीच इतनी बढ़ गई है ,जो सामाजिक परिवर्तन होने के बावजूद भी इतने पारिवारिक+सामाजिक बंधन हमारी नारी शक्ति के सामने खड़े हैं.
वास्तव में आवश्यकता है कि हमारे घर में बच्ची को उसके बचपन से ही मानसिक ही नहीं शारीरिक द्रष्टि से भी साहसिक प्रवृति का बनाया जाये. उसको पूरी वैचारिक स्वतंत्रता दी जाये.वो स्वयं अपनी बौद्धिक सामर्थ्य के अनुसार अपना सही निर्णय ले सकेगी .
अनेक तरीके हैं जिनके द्वारा वो अपने-आप को सुरक्षित रखने के साथ सावधान रख सकती है. सबसे बड़ी बात उसके मन में इस प्रकार का कोई भय न भरके उसे जागरूक और चैतन्य बनाया जाये .उसे अपने शरीर की प्राकृतिक संरचना के अनुसार क्या ध्यान व सावधानी रखनी चाहिए इसकी सही जानकारी दी जाये .
किन बातों व परिस्थितियों में निर्भय होकर संयम खोये बिना क्या कर सके. साथ ही अपने लिए बिना किसी के कहे उचित अनुचित की सीमा रेखा तय कर सकें. विशेषकर दिग्भ्रमित न हो. आत्मनिर्भर व योग्य शिक्षित होकर भी जरूरत पड़ने पर विवेक न खोकर अपनी रक्षा को सक्षम बने.
वैसे भी प्रेक्टिकल रूप से ये तो संभव ही नहीं है कि किसी बलात्कारी को या किसी हिंसात्मक व्यवहार को ,चाहे घरेलू हिंसा ही हो ,को कहीं रोका जा सके क्योंकि गलत या बलात हरकत करने वाले जरुरी नहीं है कि कही रास्ते में मिलें या रात को ही किसी भी उम्र की महिला या लड़कियों को मिलते हैं या मिलेंगे. यदि वो कही अकेली जाती है तो. ऐसे लोग तो अवसर देखते रहते हैं.
वे*घर-बाहर* कही भी ,कभी भी मिल सकते हैं.
कई उदाहरण सामने हैं कि *रक्षक भी भक्षक* बन जाते हैं.
वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है अपनी संपूर्ण सुरक्षा की पूर्ण चैतन्यता व जागरूकता+कानून सम्बन्धी जानकारी.
किसी भी बात की अधिक रोक-टोक लगाने के बदले नारी-शक्ति को किन्ही भी परिस्थितियों में अपनी सुरक्षा के लिए तैयार होना होगा ,साथ ही हमारे परिवार-समाज की युवतियों के साथ युवा शक्ति को भी सही दिशा-सही कार्यों की प्रेरणा मिलती रहे जो स्वयं आगे आकर इस तरह के कार्यों को रोकने के लिए अपनी पूरी सहभागिता प्रदान कर सकें.


अलका मधुसूदन पटेल ,*लेखिका-साहित्यकार*