Friday, October 2, 2020
मानता हूँ यह बहुत पहले नहीं मैं जान पाया, कौन सी प्रतिभा छिपी मुझमें, नहीं पहचान पाया, पर समय अब भी बचा है, अब कलम झकझोरती है, मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है। इक पहेली जिंदगी, मुझसे सुलझती ही नहीं थी, आग थी मुझमें छिपी, पर वह सुलगती ही नहीं थी, और यह दुनियां भी मेरा साथ अब तो छोड़ती है, मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है।
२। बंद द्वार खुलने दो -------
दीप जला और झरने लगा प्रकाश
प्रगट हुआ , दिव्यता का विभास।
एक एक किरण, कर आनंद का वरण
कर रही नर्तन , होने लगा परिवर्तन।
अंधकार सिमटने लगा,उजियारा छिटकने लगा।
बज उठा एक तारा,मिटा अंतस अंधियारा।
बिन गाये गीत ,अददृष्य बना मीत।
चलो चलें ,करें दीपशिखा का अभिनंदन ।
करें हर किरण का वंदन,
होश में आना है ,कर प्रवेश बोध में
बोध हो जाना है ,बोध ही जीवन है ।
वही है सत्य वरण ,वही है दिव्य चरण।
वही है शांति वही है क्रांति
हर रंग है झर रहा ,प्रकाश है बरस रहा।
हर ओर इंद्रधनुष ,छत को तरश रहा
फूल फूल ,कूल कूल ,अपना रंग भर रहा।
बोध जब जागेगा तभी कलुष भागेगा
बंद द्वार खुलने दो ,जीवन को सजने दो।अति महत्वपूर्ण पंक्तियाँ
1 ईर्ष्या के मारे जब दूसरे ,बुरा सलूक करें मेरे साथ।
निंदा करें गालियां दें मुझे ,सह सकूँ मैं नुकसान और पराजय।
और जीत उन्हें अर्पित कर सकूं।
2 जिसकी मैंने मदद की और बड़ी उम्मीद से लाभ पहुँचाया ।
वही जब बुरी तरह चोट पंहुंचाए मुझे।
मैं कृतज्ञ होऊं उसका ,मान सकूँ अपना सर्वोपरि गुरु उसे।
3 *अंधेरों की उमर*
जब रगों मेँ
पसरने लगे अंधेरा ,
औऱ साथ छोड़ दें
दुनियाभर की
बिजलियाँ।
प्रवेश करना
अपने भीतर
वहां जल रहे होंगे
सहस्त्रों दिए ।
अंधेरे की उमर
चार पहर से अधिक
भला कब हुई ,
खटखटाना
साहस और धैर्य
की कुंडियां
सूरज खुद
दरवाजा खोलेगा।
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आओ सजन वर्षगणना करें
बीते वर्षों का अवलोकन करें
पहला वर्ष आँधियों की गर्द
दूसरा वर्ष एक संघर्ष
तीसरा वर्ष सुनहरा ख्वाब
चौथे पांचवें हवा हो गए
बिटिया के साथ कहाँ खो गए
ज़िन्दगी मस्त गुज़रने लगी
अभावों में भी रौशन होने लगी
सातवें वर्ष सूरज रौशन हुआ
एक नया मेहमान
ज़िन्दगी में आ गया
परिवार पूरा हो गया
आठवां वर्ष संघर्ष लाया था
बेटे को भारी बताया था
मगर ज़िन्दगी रफ़्तार पकडती रही
जाने कितने मौसम बदलती रही
कभी मौसम आते जाते रहे
कभी ज़िन्दगी में ठहरते रहे
कुछ पतझड़ भी आने बाकी थे
ज़िन्दगी के इम्तिहान बाकी थे
कभी आत्मा लहूलुहान होती रही
कभी ज़िन्दगी से लडती रही
एक छोर तुमने सम्हाला था
दूजा मुझमे समाया था
संघर्षों ने हमको बताया था
ज़िन्दगी फूलों की सेज ही नहीं
काँटों के बाग़ भी मिलते हैं
बचकर चलने वाले ही पार निकलते हैं
अपने परायों की पहचान होने लगी
ज़िन्दगी भी हैरान होने लगी
कभी हम परेशान होते थे
अब ज़िन्दगी परेशान होने लगी
कैसे ये हँस लेते हैं
ज़िन्दगी से लड़ लेते हैं
जीना आखिर हम सीख ही गए
45 वर्ष पल में बीत गए
क्या खोया क्या पाया है
इसका ना हिसाब लगाया है
अब चाहतों की कोई चाहत नहीं
बीते वर्षों के अवलोकन में
एक बात समझ आ गयी
किसी सहारे की आदत नहीं
मगर एक दूजे बिन हम अधूरे हैं
इतना हमें समझा गयी
ज़िन्दगी हमें रास आ गयी
आओ सजन आने वाले कल में
एक नया कल सजायें
अब ज़िन्दगी को उसका मुकाम दिलाएं
जो छूट गया था जीवन में
उसको अब सफल बनाएँ
कुछ अपने कुछ तुम्हारे सपनो का
एक नया जहान बनाएँ
ज़िन्दगी की अनुभूतियाँ ज़िन्दगी के साथ रहती हैं और कदम कदम पर एक नया अहसास देती हैं फिर चाहे एक अरसा ही क्यों ना बीत गया हो मगर जेहन में ताज़ा रहती हैं कम से कम वो जिन्हें हम याद रखना चाहते हैं .उन्ही यादों में से कुछ यादें साथ साथ चलती हैं और ले जाती हैं हमें एक ऐसे जहान में जहाँ हम उनसे रु-ब-रु होते हैं तो पता चलता है वक्त तो अभी शायद वहीँ खड़ा है जिसे हम सोच रहे थे कि फिसल गया हाथ से वो तो आज भी उसी दहलीज पर इंतज़ार में खड़ा है कि कब कोई आएगा दिया रोशन करने .
वक्त ने किया क्या हसीन सितम हम रहे ना हम तुम रहे ना तुम...........कितना सही कहा है किसी ने ...........ऐसा ही तो होता है जब एक पौधे को एक आँगन से उखाड़ कर दूजे में रोपा जाता है और फिर वो उस आँगन की हवा , पानी , मिटटी और स्नेह से धीरे धीरे वहाँ खिलना शुरू कर देता है ...........उसे उस आँगन में कोई अपना मिल जाता है जो उसके जीवन में साथी की कमी पूरी कर देता है तो वो उसमे अपना जीवन देखने लगता है और वक्त के साथ वो पौधा एक वृक्ष बन जाता है मगर साथ चलते चलते उसका साथी और वो पौधा कब एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं पता ही नहीं चलता एक के बिना दूजे का अस्तित्व जैसे अधूरा लगने लगता है ..........कब साथी से एक बहुत अच्छे दोस्त बन जाते हैं उन्हें पता नहीं चलता मगर ये वक्त है ना सब बता देता है जब एक अरसा साथ रहने के बाद एक दूसरे की अहमियत का अहसास होता है.
अपना रास्ता बनाना होगा।
रो चुकीं, 'बहुत' सो चुकीं तुम।
डर चुकीं, छलीं जा चुकीं तुम।
जागो ! अब खोने का,सोने का समय है नहीं ।
दृढ़ बन पहला पग बढ़ाओ मिलेगी नई राह यहीं।
चेतना ही नहीं ,स्वयं को जगाना होगा।
अपने सम्मान केलिए कदम बढाना होगा।
करों में परिश्रम लिए,मन में सूंदर स्वप्न लिए।
सजग सरल मन ,कर्मठ स्वस्थ तन लिए हुए।
होठों में सुंदर राग मुट्ठी में, आसमान समेटे हुए।
भावनाओं की छलकती सरिता नेत्रों में लिए।
*उठो! बढ़ो*! अपनी शक्ति पहचानो,अपने नभ को तोलो।
विराट जगत की स्वामिनी हो तुम,बंद हैं कपाट,अब खोलो।
बहुत सो चुकीं, बहुत रो चुकीं बहुत छलयात्री बन चुकीं तुम।
बहुत रहीं मौन व्यथित, वेदना त्याग,बनालो नया जीवटतुम!
साजिशों से घिरीं, बंदिशों में बंधी,रहीं गुमराहगलत राहोंमें।
अंत करो! इस भेद नीति का, करो मेधा ज्वलंत मशालों में।
उठाना ही होगा, पहला चरणअपनी आस्था विश्चास से।
बचाने अस्तित्व अपना ,हां जूझना पड़ेगा सामने डर से।
सभी मत, भ्रम, लालच,मोह -माया स्वार्थों को त्यागो तुम।
अबला नहीं,कर्तव्य व शक्ति कीअपूर्व सामर्थ्य हो तुम।
परछाइयों से बाहर निकल। अपना आशियाँ बनाना होगा।
लगेगा पगपग अड़ंगा तुमको उनसे टकराना होगा ।
ना घबराना,हुलसाना आशाएं, अपेक्षाएं,आस्थाऐं तलाशना।
धरा से आकाश तक की यात्रा है तुमको अब करना।
लो कुछ कर दिखाने का *संकल्प* बनो *अग्निशिखा*!
बनके प्रचंड देवी दुर्गामां जैसी अंत करो राह के राक्षसों का।
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अलका मधुसूदन पटेल
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आस्थाऔं के बीज
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मेरे पास ढेर से
आस्थाऔं के बीज हैं
इन बीजों को
अपनी मुट्टियों में भर कर
छिटकते हुये चलना तुम
सुनो,,,,
मेरे पास एक तेज़ धारदार
विद्रोह का हंसियाँ भी है
जहाँ कहीं भी तुम्हेंं दिखाई दे
बारुद की फसल़
दुई और द्वैष की फसल
अंहकार की फ़सल
जहाँ हो जुल्म बलात्कार
देश द्रोही चाटुकार
इस तेज़धार हँसिया से काट कर
उस सुनी धरती पर
आस्थाऔं के बीज़ छिड़क देना......
SONIYA