Saturday, July 17, 2010

सामाजिक सरोकार
*अपनी संपूर्ण सुरक्षा की पूर्ण चैतन्यता-जागरूकता+कानून सम्बन्धी जानकारी*.
परिवारों में विशेषकर भारतवर्ष में बेटी के जन्म लेते ही ये बात बचपन से उसके मन में भर दी जाती है कि उसके भाई की तुलना में वो शारीरिक स्वरुप में कमजोर है ,बहुत प्रकार के अवरोध(रोक) उसकी कम उम्र से ही लगाना प्रारंभ हो जाते हैं .लड़के की तुलना में उसको कुछ विशेष सावधानी-देखरेख से ही पाला जाता है. जो उसकी मानसिकता को कमजोर बना देते हैं. छोटी सी बच्ची अपने घर में ही अपने आपको हीन या किसी कमी से ग्रस्त मानने लगती है क्योंकि उसके लिए जीवन के हर क्षेत्र में अलग-अलग प्रकार से रोक लगने से उसकी स्वतंत्रता में कमी-बाधक हो जाती है.
बिना जाने ही समाज के प्रति या अपने आसपास वालों के प्रति उसके मन में एक प्रकार चिंता व जाना-अनजाना डर या अलगाव समां जाता है.
ये बिना किसी भेद भाव से समाज के हर वर्ग के लगभग हर छोटे-बड़े ,निम्नवर्गीय-मध्यमवर्गीय-उच्चवर्गीय ,हम-आपके सबके परिवारों में होता है. अधिकांश परिवार अपनी बेटी की सुरक्षा की द्रष्टि से उसपर रोक लगाने को अपने को मजबूर पाते हैं .इस सबके पीछे परिवार का उद्देश्य हर जगह अपनी बच्ची के साथ सिर्फ भेदभाव के लिए ही नहीं होता.व्यक्तिगत नहीं होकर कहीं निःस्वार्थ मजबूरी भी मानी जा सकती है या अपनी बेटी के प्रति अपनी सघन जिम्मेदारी-स्नेही उत्तरदायित्व भी.
हालाँकि हर बात में बारबार ऐसे अड़ंगे-थोड़ी समझ आने पर स्वाभाविक हमको, हमारी बेटियों या नारी शक्ति को अस्वीकार व असंतुष्ट-कुंठित बना देती है.
आज के विचार के अनुसार माना जाये तो घर की बिटिया को एक जिम्मेदार स्वस्थ नागरिक बनने की प्रक्रिया में यही से कमी आ जाती है.
सत्य है कि उसके मानवाधिकार का हनन भी शुरू हो जाता है.
पर इस सबके बीच हमें हमारे समाज के मूलभूत ढांचे के बारे में सोचना पड़ेगा व क्यों ऐसा हुआ है ,होता है या हो रहा है. क्यों ये असुरक्षा की भावना हमारे बीच इतनी बढ़ गई है ,जो सामाजिक परिवर्तन होने के बावजूद भी इतने पारिवारिक+सामाजिक बंधन हमारी नारी शक्ति के सामने खड़े हैं.
वास्तव में आवश्यकता है कि हमारे घर में बच्ची को उसके बचपन से ही मानसिक ही नहीं शारीरिक द्रष्टि से भी साहसिक प्रवृति का बनाया जाये. उसको पूरी वैचारिक स्वतंत्रता दी जाये.वो स्वयं अपनी बौद्धिक सामर्थ्य के अनुसार अपना सही निर्णय ले सकेगी .
अनेक तरीके हैं जिनके द्वारा वो अपने-आप को सुरक्षित रखने के साथ सावधान रख सकती है. सबसे बड़ी बात उसके मन में इस प्रकार का कोई भय न भरके उसे जागरूक और चैतन्य बनाया जाये .उसे अपने शरीर की प्राकृतिक संरचना के अनुसार क्या ध्यान व सावधानी रखनी चाहिए इसकी सही जानकारी दी जाये .
किन बातों व परिस्थितियों में निर्भय होकर संयम खोये बिना क्या कर सके. साथ ही अपने लिए बिना किसी के कहे उचित अनुचित की सीमा रेखा तय कर सकें. विशेषकर दिग्भ्रमित न हो. आत्मनिर्भर व योग्य शिक्षित होकर भी जरूरत पड़ने पर विवेक न खोकर अपनी रक्षा को सक्षम बने.
वैसे भी प्रेक्टिकल रूप से ये तो संभव ही नहीं है कि किसी बलात्कारी को या किसी हिंसात्मक व्यवहार को ,चाहे घरेलू हिंसा ही हो ,को कहीं रोका जा सके क्योंकि गलत या बलात हरकत करने वाले जरुरी नहीं है कि कही रास्ते में मिलें या रात को ही किसी भी उम्र की महिला या लड़कियों को मिलते हैं या मिलेंगे. यदि वो कही अकेली जाती है तो. ऐसे लोग तो अवसर देखते रहते हैं.
वे*घर-बाहर* कही भी ,कभी भी मिल सकते हैं.
कई उदाहरण सामने हैं कि *रक्षक भी भक्षक* बन जाते हैं.
वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है अपनी संपूर्ण सुरक्षा की पूर्ण चैतन्यता व जागरूकता+कानून सम्बन्धी जानकारी.
किसी भी बात की अधिक रोक-टोक लगाने के बदले नारी-शक्ति को किन्ही भी परिस्थितियों में अपनी सुरक्षा के लिए तैयार होना होगा ,साथ ही हमारे परिवार-समाज की युवतियों के साथ युवा शक्ति को भी सही दिशा-सही कार्यों की प्रेरणा मिलती रहे जो स्वयं आगे आकर इस तरह के कार्यों को रोकने के लिए अपनी पूरी सहभागिता प्रदान कर सकें.


अलका मधुसूदन पटेल ,*लेखिका-साहित्यकार*

Sunday, July 11, 2010

*गंभीर विचार*
पिछले कुछ दिनों से एक बिना मतलब की छीटाकशी या निरर्थक बातों-लेखन से कुछ लोग न केवल अपना समय व्यर्थ कर रहे हैं बल्कि अपनी ओर दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए ये अनुचित *अति* कर रहे हैं ,जो उचित नहीं है.
यदि हमारी शक्ति अच्छे कार्यों-विचारों की तरफ जाये तो सही होगा.
सार्थक सोच या निरर्थक विचार
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये ,अपना तन शीतल करे, औरों को सुख होए.
अक्सर हर बात या वस्तु के दो पहलू होते हैं. अच्छा-बुरा, गलत-सही ,आनंद-विषाद, सत्य-असत्य, समझदार-नासमझदार, हार-जीत, होशियार- बेवकूफ, जानबूझकर-अनजाने में, इसी तरह और भी बहुत हैं.
बुद्धिजीवी होकर भी कभी गलती हो जाती है और कभी अनजाने में अनचाही भूल कर बैठते हैं .पर जब जान-बूझकर कोई ऐसा काम लगातार किया जाये जो दूसरों के लिए अहितकर हो , वेदना देनेवाला हो, नीचा दिखाने या चिढाने के लिए हो या घरेलू हिंसात्मक(बोली) प्रवृति लिए हो. तो ये सर्वथा वर्जित है.
"सर्वप्रथम ऐसे कुछ गिने-चुने लोगों से सावधान रहें व अपना विवेक न खोएं क्योंकि उनका तो लेखन में या कार्यों में ऐसे कृतित्व से कोई वजन (वेट) ही नहीं है. वे अपने इन कुत्सित व गलत विचारों द्वारा दूसरों को केवल व्यग्र या क्रोधित करने की चेष्टा करते रहते हैं. ताकि उनपर दूसरे मनीषियों-माननीयों का ध्यान जाये. समझ लें ऐसे लोगों के पास वैचारिक शक्ति ही नहीं है कुछ अच्छा बोलने या सोचने की ,ध्यान न ही दें न कोई प्रतिक्रिया कभी भी जाहिर करें.
संभवतः उनको स्वान्तः सुखाय का आनंद मिलता हो ,त्याग कर दीजिये उनके निरर्थक शब्दों को.
कथन कटु हो सकता है पर सत्य है. थोडा सा ज्ञान हासिल करके आजकल बहुतायत लोग बुद्धिमानों की श्रेणी में शामिल होने की चाहत रखते हैं पर जानकारी के अभाव में निरर्थक बातों या कामों से जानबूझकर अपने को बड़ा(ज्यादा महत्वपूर्ण) दिखाने के लिए बिना कुछ सोचे ऐसा करने की कोशिश करते हैं ,शायद वे नहीं जानते कि ये उन्ही के लिए सही नहीं है.
महत्वपूर्ण - उनके पास सार्थक सोच ही नहीं होती वे ऐसा न मानें .हाँ निरर्थक विचार जो उनके मन में भरे पड़े हैं उसका उपयोग न करें .अपना मन-विचार श्रेष्ट कर्मों में लगायें ,तो न केवल उनका लेखन+ब्लॉग बल्कि जीवन भी सार्थक होगा. सभी उनको पढ़ना भी चाहेंगे. स्वयं अपने व अपनों की नज़रों में बहुत ऊँचा उठ पाएंगे. अपनी योग्यता-बौद्धिक क्षमता को सही दिशा में लगाकर निश्चय ही उत्क्रष्ट्ता की ओर बढ़ेंगे व अपनी बुद्धिमत्ता सही स्वरूप में साबित कर सकेंगे.
हमारे भारत की परंपरा-संस्कार ये नहीं सिखाते कि अनर्गल प्रलाप ,गलत-अविवेकपूर्ण *शब्दों- द्रश्यों* का प्रयोग हम किसी के लिए भी न करें या गलत सोचें. किसी भी बात को सही तरह से कहा जा सकता है व उसका असर ज्यादा रहकर महत्वपूर्ण बनता है.
अपनी भाषा व कार्यों में शाब्दिक गरिमा-गौरव बनाये रखकर ही हमें आपस में एक-दूसरे का सम्मान करना सीखना ही होगा.
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये , अपना तन शीतल करे ओरों को सुख होए .
आपसी प्रतिद्वंदिता, एक दूसरे का भेद-भाव या नीचा दिखाने की कोशिश किये बिना क्यों न हम अपना ज्ञान, जानकारी, श्रेष्टता ,अनुभव सहयोग करें+बाटें. ज्ञातव्य है हमारे अधिकतर भाई-बहनें कर भी रहे हैं. परोक्ष-अपरोक्ष रूप में तो हम सब एक दूसरे से वैचारिक-मानसिक रूप में जुड़े हैं. विज्ञान के वरदान से इन्टरनेट बहुत अच्छा माध्यम बन चूका है. कुछ पहले समय तक तो हमें इतना बढ़िया मौका ही नहीं मिलता रहा है कि हम सब अपने विचार -मंतव्य आसानी से बाँट सकें.
संसार के अथाह ज्ञान सागर व मन की गहराई में तो जाने कितना विशाल भंडार -खजाना पड़ा है कि हम उसको सामूहिक समेटने व सामने लाने का प्रयास करें तो भी कम पड़ेगा पर हम सब कितने ऊँचाइयों तक पहुँच सकते हैं सोच नहींसकते.
कोई भी किसी से कम ज्यादा नहीं है ,आपस में ही होड़ लेने की आवश्यकता नहीं होती ,सभी अपने-अपने क्षेत्र-कार्य में सर्वश्रेष्ट हैं. हाँ एक-दूसरे की कमियों-बुराइयों-पिछड़ी-पिछली बातों पर ध्यान न देकर कुछ प्रशंसनीय प्रयास किया जाना चाहिए जो हमारी ही योग्यता को प्रदर्शित न करे बल्कि दूसरे लोगों के लिए प्रेरणा बने व हमें उन पर गर्व हो वे इसी के लिए प्रतिबद्ध रहें.
कबीर मन निर्मल भये जैसे गंगा नीर ,पाछे-पाछे हर फिरे कहत कबीर कबीर.
तात्पर्य हम अपना मन-दिमाग निर्मल-सही दिशा में रखें तो लोग स्वयं आपको पढना चाहेंगे.
“--हम सभी लेखकों-लेखिकाओं समूह के लिए हम सभी की ओर से- -“,
अलका मधुसूदन पटेल , *लेखिका -साहित्यकार*

Friday, June 18, 2010

झाँसी की रानी को श्रद्धांजलि

*ओ! बुंदेला भूमि जननी रख ले प्रदेश का पानी ,एक बार फिर से दे दे लक्ष्मीबाई सी रानी*
आज १८ जून को झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई की पुण्य तिथि है ,उनकी स्मृति में सारे भारतवर्ष की न सिर्फ महिला-शक्ति बल्कि हर भारतीय का मस्तक गर्व से ऊँचा होता है. हर नारी को झाँसी की रानी से प्रेरणा लेकर साहसी बनना है व आवश्यकता पड़ने पर विवेकपूर्ण निर्णय लेकर अपने कदम बिना किसी से डरे आगे बढ़ाना होगा. ज्ञातव्य है सदियों से ही हमारे देश की नारी ने बड़े से बड़े कार्य किये हैं ,वर्तमान में भी नारियों ने वैसे भी हर क्षेत्र में अपने परचम लहराने प्रारंभ कर दिए हैं लगभग हर जगह आगे आकर अपना लोहा मनवा रही हैं ,तो फिर किसी भी बात(समस्या) से न घबराकर अपनी गरिमा बनाये रखकर आगे बढते रहना है.
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई- नारी शक्ति के साहस व शौर्य का गुण-गान आज भी समस्त बुंदेलखंड के कण-कण में ही नहीं संपूर्ण भारतवर्ष के जन-मानस के रग-रग में व्याप्त है.जहाँ जाकर उनके बारे में जानकर हमारे मन में भी वैसा ही स्वाभिमान व एक अपूर्व शक्ति जाग्रत हो जाती है . हमें हमारी मानसिक व शारीरिक शक्ति चैतन्य करनी ही होगी.
*झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता प्रशस्ति विभिन्न स्वरूपों में*
प्रख्यात कवियों+साहित्यकारों ने उनको अपनी भावनात्मक श्रद्धांजलि अपने अलग-अलग रूप में प्रगट की है.
• श्रीयुत बाई लक्ष्मी शोभित त्रिविध स्वरुप ,सभा सरस्वती ,गृह रमा, युद्ध कालिका रूप.
तज कमलासन ,कर कमलासन,गहि रंग तलवार,कुल कमला काली गयी,झाँसी दुर्ग द्वार.
.--वियोगी हरि
• देश की गुलामी और नमक -हरामी इन दोनों से ही लक्ष्मी देश लक्ष्मी सी छली गई ,
आखिरी प्रणाम कर झाँसी को उसांसी भर, साथ कर सुरमों के एक थी अली गई,
विप्रधन श्याम हांकते ही रहे बांटें अरि , तकते ही रहे जन कौन सी गली गई,
बैरियों की भीर थी , हाथ शमसीर थी ,यों चीरती फिरंगियों को तीर सी छली गई.
घनश्यामदास पाण्डेय
• गर्दन पर गिर पड़ने वाली ,काँटों से कढ़ जानेवाली ,अरि की बोटी से चटख-चटख ,छोटी तक चढ़ जानेवाली '
छू गई कहीं पर किंचित भी,जिसको इनकी विष बुझी धार,विष चढ़ते ही गिर पढ़ते थे अरि एक-एक पर चार.
• प्रतिपल शोणित की प्यास थी,पर पानीदार कहती थी ,जिसके पानी से पानी में बेलाग आग लग जाती थी.
*लक्ष्मीबाई की सु स्मृति का गति हूँ अनुपम आव्हान ,खोजा करती हूँ दुर्गा की पदरज पावन पुण्य महान.*
*हम सभी महिला शक्ति की ओर से हमारी प्रेरणा झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को हम सबकी ओर से श्रद्धा-सुमन अर्पित हैं .*
“उनकी शक्ति से अभिमंत्रित व विजित ” ,
कोमल है कमजोर नहीं ,शक्ति का नाम नारी है ,सबको जीवन देनेवाली मौत भी उससे हारी है.
इल्म ,हुनर, औ दिलोदिमाग में कहीं किसी से कम नहीं,वह तो अपने सारे अधिकारों की पूरी अधिकारी है.
बहुत हो चुका ये दुःख सहना अब इतिहास बदलना है ,नारी को अब कोई कह न पाए ये अबला बेचारी है.
*जय हो रानी लक्ष्मीबाई की , जय हो भारतीय नारी शक्ति की एकता की ,जयहिन्द*
*अलका मधुसूदन पटेल ,लेखिका -साहित्यकार*

Wednesday, March 24, 2010

*प्रयास से परिवर्तन संभव*
बहुधा हम अपने आस-पास गलत घटित ,लिखित,सुनी बातों या घटनाओं को पढकर-देखकर-सुनकर विचलित हो जाते हैं.
हम जितना आगे बढ़ते हैं उतने ही कुछ लोग पीछे लोग धकेलने की कोशिश करते हैं. चाहे वो ब्लोगर्स हों ,पेपर्स में हों, या किसी की बातें हालाँकि इनकी संख्या ऊँगली पर गिनने वालों की रहती है. ये वे लोग होते हैं जो कुंठित रहते हैं या अपने आप में असफल रहकर निराश रहते हैं , हम इनको *मानसिक विकलांग* कह सकते हैं ,जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर खुश होते हैं. हालाँकि ऐसी ओछी मानसिकता वाले लोग हमारे ही घर या बाहर कहीं भी हो सकते हैं. ये कुछ लोग अपने आप को श्रेष्ट साबित करने का कितना भी दंभ भरें इसकी कोशिश में वे स्वयं निम्न विचारों के बन जातें हैं. "तो इनको नजरंदाज न करके इनपर पैनी निगाह तो रखें " साथ ही अपने हक या अधिकार के लिए सदैव आगे बढें. अपने संकीर्ण विचार त्यागकर ,अपनी आवाज बुलंदकर कोई जुल्म या अत्याचार न सहें पर अपने धैर्य का परित्याग कभी न करें ,निराश न हों सदैव आशावादी द्रष्टि रहे स्वनिर्णय लेने की क्षमता रहे. अपना आत्मसंयम-अनुशासन हमें बड़ी से बड़ी समस्या, विकट कठिनाइयों व विपरीत परिस्थितियों में भी हमें आसानी से विजय दिलाता है. बस योजनाबध्द तरीके से अपने कार्य को करें.
NEVERDOUBT THAT A SMALL GROUP OF THOUGHTFUL ,COMMITED CITIZENS CAN CHANGE THE WORLD .
INDEED ITS THE ONLY THING THAT EVER HAS.
वर्त्तमान समय में हमारी *नवयुवा पीढ़ी* स्वयं स्फुटित ज्योतिपुंज स्वरुप बनकर सशक्त हो रही है.
संपूर्ण चेतना से जागरूक ,चैतन्यशील व सुशिक्षित होकर अपना मार्ग निर्धारण करने का साहस बटोरकर निरंतर उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर होती जाती है.
जीवन के संघर्ष-कड़े रास्ते,कटु वचन-मानसिक या शारीरिक हिंसा भी उनको डिगा नहीं पाते बल्कि उत्क्रष्टता के मार्ग को प्रशस्त करते हैं . योग्यता व सफलता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ,सफलता के आकाश को विस्तृत करने के लिए अपनी योग्यता को निरंतर विकसित करते रहना आवश्यक है.
*बहुत विशाल होता है ख्वाहिशों का आसमां-----और उतना ही मुश्किल होता है ,हर इच्छा को साकार कर पाना ,लेकिन जब कुछ हासिल करने का जज्बा दिल में रहे नई राहें मिल जातीं हैं व मंजिलें करीब आ जातीं हैं आपके प्रयास से सफलता आपके कदम छूने को आतुर हो जाती है.*
हाँ निस्वार्थ भाव से हमें अपने भाई-बहिनों को भी पीछे न धकेलकर ,दुर्व्यवहार न कर उनकी योग्यता के अनुरूप सबको साथ लेकर सतत सहयोग को तत्पर होना होगा . हमारा प्रयास सार्थक होगा व जैसा परिवर्तन हम चाहते है अवश्य होगा .
समय के साथ बदलना होगा ,स्वाभिमानी-स्वावलंबी-साहसी बनने के लिए समर्पित -संकल्पित यज्ञ की प्रगति में सहायक होना है.
*इस अँधेरी रात को हरगिज मिटाना है हमें. इसलिए हर खेत से सूरज उगाना है हमें.*
अलका मधुसूदन पटेल
*लेखिका व साहित्यकार*

Tuesday, February 23, 2010

अपनी विशिष्टता का अहसास करके आत्मबल बढ़ाना होगा---आत्म-निर्भरता की ओर कदम बढ़ाने होंगे---
जब हमारा आत्मबल जाग्रत होता है तो दुनिया की समस्त शक्तियां छोटी पड़ जाती हैं .नारी-शक्ति को स्वयं इसका अहसास कराना होगा.
सदियों से महिलाऐं वैश्विक स्तर में भी समाज में हाशिये पर रही हैं. उनका सिर्फ शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक -भावनात्मक तरीके से मजबूरी व मासूमयित का फायदा उठाये जाता रहा है. उनको आधी दुनिया तो बोला जाता है पर उनको उनके मानव-अधिकारों तक से वंचित रखा जाता रहा है.
पर आज सामाजिक,सांस्कृतिक ,पारिवारिक मूल्यों में निरंतर चेतना बढ़ रही है, परिवेश बदल रहे हैं. वास्तव में समाज में भी कर्तव्यबोध की भावना बढ़ रही है धीरे-धीरे ही सही. पुरुष वर्ग के साथ मुख्यतः अब महिलाओं को भी अपना नजरिया बदलना होगा क्योंकि एक परिवार में वे ही मुख्य धूरी मानी जाती हैं . उनकी खुद की जिंदगी में वे जिस कमी ,भेदभाव,शोषण या ना-इंसाफी का शिकार हुईं हैं ,होती रही हैं . अपनी बेटी - बहू या समाज की हर बच्ची के साथ किसी भी भेद-भाव-भुलावे से मुक्त रखें. विशेष अपने घर में बेटी-बेटे में कोई भेदभाव नहीं करके समान अवसर दें. सही संस्कार व सामाजिक मूल्यों के साथ बचपन से ही बेटी को पूर्ण जागरूक व सशक्त बनाया जाये ना कि प्राकृतिक शारीरिक कमजोरी का अहसास कराके उसका मनोबल कम किया जाये. हर क्षेत्र में जागरूकता की बहुत जरुरत होती है.
अपने परिवार से ही शुरुआत करके व्यापक बदलाव करने होंगे. समाज के हर वर्ग के लिए इस समस्या के निदान ढूंढने होंगे.
वैसे भी सर्व-विदित है कि एक बेटी अपने परिवार से दूसरे परिवार में अपने को आत्मसात करने के बाद भी ( अपनी शादी के बाद) जुडी रहती है पूरा ध्यान रखती है. हाँ हमें अपनी बच्चियों को संपूर्ण सशक्त -सफल -अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता की पहल उसके जन्म से ही शुरू करनी होगी. जब तक हम स्वयं अपने घर में से ही हमारी बच्चियों का आत्मबल बढ़ाने का ध्यान नहीं रखेगे तो किसी जादुई चमत्कार की आशा दूसरे से नहीं कर सकते. अभी हमें बहुत कुछ करना बाकी है घरेलू हिंसा के साथ समाज में दिनों-दिन बढ़ते हिंसात्मक व्यवहार से अपनी व अपने परिवार की सुरक्षा किस तरह की जाये इसकी जानकारी हेतु वृहद उपाय किये जाने होंगे. घरेलू+कामकाजी महिलाओं को अपनी भूमिका सक्षम बनानी होगी ,अपनी बच्चियों को अधिक मूलभूत सुविधा दिलवाने के साथ सतत निगरानी के दायित्व भी निभाने होंगे व उन पर विश्वास करके उनके कर्तव्यों से परिचित कराना होगा ताकि वे किसी गलत लालच या मतिभ्रमित होने से बचें. और वे समाज-परिवार व अपनी जिंदगी में सामान्य संतुलन बनाकर निडर होकर अपना जीवन सार्थक सकें. अपनी बात कहने में हिचक महसूस ना करें.
बालिकाओं की प्रगति व उत्थान के लिए आन्दोलन का प्रारंभ नए तरीके से करना है तो बारम्बार अनेकों अत्याचार व दुर्घटनाओं से हम मात्र विचलित होकर नहीं रहेंगे.
श्रंखलाएं हों पगों में,गीत गति में है सृजन का ,
है कहाँ फुर्सत पलक को ,नीर बरसाते नयन का,
उठो आगे बढ़ो ,ये समय है कुछ कर दिखाने का.
जयहिंद-जय महिला-शक्ति.
अलका मधुसूदन पटेल ,लेखिका+साहित्यकार.