Friday, October 2, 2020

*समवेत स्वर*  चन्द्ररेखा सिंह 

जीवन को समवेत स्वरों मे गाओ तो ,पीड़ा से दुखते मन को सहलाओ तो ,

अपनो मे तो अपनापन पा लेते  सब ,तुम ग़ैरों मे भी  अपनापन  पाओ  तो ,

जीने का अन्दाज़  नया  पा जाओगे  ।

अधियारों  से  भी  प्रकाशकण  फूट रहे इन्हे  तराशो , काट छांट  कुछ नया  गढ़ो ।

इकलेपन  की स्याही  और हुई  गाढ़ी  ,लसन्नाटों ने  लिखा बहुतकुछ उसे पढ़ो ,

अपनो बेगानों  का  सच  पा जाओगे  ।

अपनी  सीढ़ी स्वयं बनाओ और  चढ़ो ,अपनी राहें स्वयं बनाओ और  बढ़ो  ,

हार जीत  के  पैमाने सब  बदल  चुके ,संघर्षो का शोर कह रहा लड़ो  लड़ो  ,

विजयवधू  की वरमाला  पा जाओगे  ।

अपनी लघुता  का  अनुमान  लगाओ तो ,मन से  प्रभुता का अभिमान हटाओ तो  ,

ऊंचाई पर रहोभले नत  शीष  रखो  ,कल्याणी धरती का  दर्द  मिटाओ  तो  ,

सत्  चित्  औ आनन्द  सभी  पा जाओगे  ।

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लेखिका श्रींमती अलका मधुसूदन पटेल

ज्ञानदीप

अंतस का दीप जलाओ , तुम प्रकाशपुंज बनो।तिमिर छाया है चहुँ ओर, किरण आलोक बनो। 

अपनी राह बनाओ और बढ़ो ,बनो अग्निशिखा,संघर्षों से लड़ो औ नित बढ़कर उत्कृष्टता चुनो।

अंधेरे तो हैं, घेरेंगे, रहेंगे, वे बार-बार टकराएंगे ।कुटिलता से हम डरेंगे ,हर पल उतना डराएंगे।

अंधेरे केवल रातके नहीं,मनके अंदर भी होते हैं,दूरकरो प्रज्ञा से ,साहसी बन विश्वास जगाएंगे।

वेदना के स्वर भूलकर ,समवेत गीत गुनगुनाना।सन्नाटों को हंसी खुशी के, सुपलों में है बदलना।

दुर्बलता नहीं,सबलता सेअब कदमों को बढ़ाना,सपने पीछे छूट गए ,अब है विजयरथ ही पाना।

अपनों में बेगाना, गैरों में अपनेपन को पाओगे।स्व प्रभुता-लघुता में रचकर स्नेहदीप जलाओगे।

ऊंचाई पर रहकर भी, जमीन में बोध फैलाओगे , अपनी खुशी ,धरणी में बांट आनंदमय बनाओगे।

नन्हा सा दीपक तुम्हारा,देखो प्रकाश बांट रहा।ज्योतिअखंड बन सुंदर, ज्ञानचक्षुओं से हो हरा।

होँगे दूर अंधियारे,ज्योति से तुम्हारी हो पल्लवित बने प्रकाश दीपमाला ,हैं, देखो दे रहे उजियारा।

2    'विजित'

करना  होगा  संघर्ष ,पाने को नवउत्कर्ष।

चुनौतीसे जो जुझौगे , तब चुन पाओगे हर्ष।

सत्य से  हटना नहीं, दम्भ से  घिरना नहीँ।

लालसाएं रोकेंगी पथ, लेनी होगी तुम्हें शपथ।

मार्गच्युत  होना नहीं, बाधाओंसे डरना नहीं।

संकट करेंगे विचलित, करना  स्व प्रकाशित।

अपनी दिशा पहचानो, लक्ष्य  उद्देश्य बनाओ।

निर्बंध  निर्बाध  बढ़ो, उन्नति की सीढ़ी चढ़ो।

ध्येय-अविरल लक्षित जिंदगी सहज 'विजित'


3 *रंगों की कैसी है ये बौछार*

अब त्यौहार कहाँ रहा रे भाई, कहाँ रहा है त्यौहार।

भाव भंगिमा शब्द बदलते जाते नहीं बचा ब्यौहार।

 मन अब बदल चले है छद्म रंगों से बन रहे रंगदार।

मिलते अमर्यादित आचरण गंदे शब्दों की बौछार। 

राजनीति के रंगों ने ह्रदय बदला-बदल दिया है प्यार। 

सीधे सादे लोग भी अनजाने झेल रहे हैं वार पे वार। 

नित कड़वी बोली,होती फीकी गुजिया ओ रंग-धार। 

मिठाई बदलती खटाई में ,बदरंग हो बनते हथियार।

अब त्यौहार कहाँ रहा रे भाई , कहाँ रहा है त्यौहार। 

बुनने होंगें फिर सतरंगी सपने, वही मान ओ मनुहार।

कल्पनाओं के क्षितिजों से ,अनुबंधों के सुंदर से हार।

चलो फिर ढूढें रस रंगों के, रिश्ते नए संकल्पों केद्वार।

स्वाद बदलें जिंदगी का, जीभ का ,मिलें नए आचार।

ख़ुदी को करें बुलंद ,लौटा लाएं वही रंगीला त्यौहार।

आएगी फिर वही सूंदर होली की रंग बिरंगी बौछार । 

अलका मधुसूदन पटेल ।

खिलकर सुमन,बोल रहे खुशबू से,खुशबू बिखरे , कह उठी भौरों से।

भौंरे करें गुंजन,बोलें तितलियों से,तितली उड़ी कहने अम्बर मेघों से।

बदरेझिलमिल,भीगाआंगन जलसे,आया सावन, हां नागपंचमी आयी।

जन्मदिवस की सुखद बेला हैआयी,अर्पणकर पुष्प,अद्भुत शक्ति हैपाई।

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मानता हूँ यह बहुत पहले नहीं मैं जान पाया, कौन सी प्रतिभा छिपी मुझमें, नहीं पहचान पाया, पर समय अब भी बचा है, अब कलम झकझोरती है, मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है। इक पहेली जिंदगी, मुझसे सुलझती ही नहीं थी, आग थी मुझमें छिपी, पर वह सुलगती ही नहीं थी, और यह दुनियां भी मेरा साथ अब तो छोड़ती है, मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है।

 २। बंद द्वार खुलने दो -------


दीप जला और झरने लगा प्रकाश 

प्रगट हुआ ,  दिव्यता का विभास।

एक एक किरण, कर आनंद का वरण 

कर रही नर्तन , होने लगा परिवर्तन।

अंधकार सिमटने लगा,उजियारा छिटकने लगा।

बज उठा एक तारा,मिटा अंतस अंधियारा।

बिन गाये  गीत ,अददृष्य बना मीत।

चलो चलें ,करें दीपशिखा का अभिनंदन ।

करें हर किरण का वंदन,

 होश में आना है ,कर प्रवेश बोध में 

बोध हो जाना है ,बोध ही जीवन है ।

वही है सत्य वरण ,वही है दिव्य चरण।

वही है शांति वही है क्रांति

हर रंग है झर रहा ,प्रकाश है बरस रहा।

हर ओर इंद्रधनुष ,छत को तरश रहा 

फूल फूल ,कूल कूल ,अपना रंग भर रहा।

बोध जब जागेगा तभी कलुष भागेगा 

बंद द्वार खुलने दो ,जीवन को सजने दो।अति महत्वपूर्ण पंक्तियाँ


 1 ईर्ष्या के मारे जब दूसरे ,बुरा सलूक करें मेरे साथ।

निंदा करें गालियां दें मुझे ,सह सकूँ मैं नुकसान और पराजय।

और जीत उन्हें अर्पित कर सकूं।


 2 जिसकी मैंने मदद की और बड़ी उम्मीद से लाभ पहुँचाया ।

वही जब बुरी तरह चोट पंहुंचाए मुझे।

मैं कृतज्ञ होऊं उसका ,मान सकूँ अपना सर्वोपरि गुरु उसे।


3    *अंधेरों की उमर*

जब रगों मेँ 

पसरने लगे अंधेरा ,

औऱ साथ छोड़ दें 

दुनियाभर की

 बिजलियाँ।

प्रवेश करना

 अपने भीतर 

वहां जल रहे होंगे 

सहस्त्रों दिए ।

अंधेरे की उमर 

चार पहर से अधिक 

भला कब हुई ,

खटखटाना 

साहस और धैर्य 

की कुंडियां 

सूरज खुद

दरवाजा खोलेगा।

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आओ सजन वर्षगणना करें

बीते वर्षों का अवलोकन करें

पहला वर्ष आँधियों  की गर्द

दूसरा वर्ष एक संघर्ष

तीसरा वर्ष सुनहरा ख्वाब

चौथे पांचवें हवा हो गए

बिटिया के साथ कहाँ खो गए

ज़िन्दगी मस्त गुज़रने लगी

अभावों में भी रौशन होने लगी

सातवें वर्ष सूरज रौशन हुआ

एक नया मेहमान

ज़िन्दगी में आ गया

परिवार पूरा हो गया

आठवां वर्ष संघर्ष लाया था

बेटे को भारी बताया था

मगर ज़िन्दगी रफ़्तार पकडती रही

जाने कितने मौसम बदलती रही

कभी मौसम आते जाते रहे

कभी ज़िन्दगी में ठहरते रहे

कुछ पतझड़ भी आने बाकी थे

ज़िन्दगी के इम्तिहान बाकी थे

कभी आत्मा लहूलुहान होती रही

कभी ज़िन्दगी से लडती रही

एक छोर तुमने सम्हाला था

दूजा मुझमे समाया था

संघर्षों ने हमको बताया था

ज़िन्दगी फूलों की सेज ही नहीं

काँटों के बाग़ भी मिलते हैं

बचकर चलने वाले ही पार निकलते हैं

अपने परायों की पहचान होने लगी

ज़िन्दगी भी हैरान होने लगी

कभी हम परेशान होते थे

अब ज़िन्दगी परेशान होने लगी

कैसे ये हँस लेते हैं

ज़िन्दगी से लड़ लेते हैं

जीना आखिर हम सीख ही गए

45 वर्ष पल में बीत गए

क्या खोया क्या पाया है

इसका ना हिसाब लगाया है

अब चाहतों की कोई चाहत नहीं

बीते वर्षों के अवलोकन में

एक बात समझ आ गयी

किसी सहारे की आदत नहीं

मगर एक दूजे बिन हम अधूरे हैं

इतना हमें समझा गयी

ज़िन्दगी हमें रास आ गयी


आओ सजन आने वाले कल में

एक नया कल सजायें

अब ज़िन्दगी को उसका मुकाम दिलाएं

जो छूट गया था जीवन में

उसको अब सफल बनाएँ

कुछ अपने कुछ तुम्हारे सपनो का

एक नया जहान बनाएँ 


 ज़िन्दगी की अनुभूतियाँ ज़िन्दगी के साथ रहती हैं और कदम कदम पर एक नया अहसास देती हैं फिर चाहे एक अरसा ही क्यों ना बीत गया हो मगर जेहन में ताज़ा रहती हैं कम से कम वो जिन्हें हम याद रखना चाहते हैं .उन्ही यादों में से कुछ यादें साथ साथ चलती हैं और ले जाती हैं हमें एक ऐसे जहान में जहाँ हम उनसे रु-ब-रु होते हैं तो पता चलता है वक्त तो अभी शायद वहीँ खड़ा है जिसे हम सोच रहे थे कि फिसल गया हाथ से वो तो आज भी उसी दहलीज पर इंतज़ार में खड़ा है कि कब कोई आएगा दिया रोशन करने .


वक्त ने किया क्या हसीन सितम हम रहे ना हम तुम रहे ना तुम...........कितना सही कहा है किसी ने ...........ऐसा ही तो होता है जब एक पौधे को एक आँगन से उखाड़ कर दूजे में रोपा जाता है और फिर वो उस आँगन की हवा , पानी , मिटटी और स्नेह से धीरे धीरे वहाँ खिलना शुरू कर देता है ...........उसे उस आँगन में कोई अपना मिल जाता है जो उसके जीवन में साथी की कमी पूरी कर देता है तो वो उसमे अपना जीवन देखने लगता है और वक्त के साथ वो पौधा एक वृक्ष बन जाता है  मगर साथ चलते चलते उसका साथी और वो पौधा कब एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं पता ही नहीं चलता एक के बिना दूजे का अस्तित्व जैसे अधूरा लगने लगता है ..........कब साथी से एक बहुत अच्छे दोस्त बन जाते हैं उन्हें पता नहीं चलता मगर ये वक्त है ना सब बता देता है जब एक अरसा साथ रहने के बाद एक दूसरे की अहमियत का अहसास होता है.




 अपना रास्ता बनाना होगा। 


रो चुकीं, 'बहुत' सो चुकीं तुम।

डर चुकीं, छलीं जा चुकीं तुम।


जागो ! अब खोने का,सोने का समय है नहीं । 

दृढ़ बन पहला पग बढ़ाओ मिलेगी नई राह यहीं।

चेतना ही नहीं ,स्वयं को जगाना होगा। 

अपने सम्मान केलिए कदम  बढाना होगा। 


करों में परिश्रम लिए,मन में सूंदर स्वप्न लिए। 

सजग सरल मन ,कर्मठ स्वस्थ तन लिए हुए। 

होठों में सुंदर राग मुट्ठी में, आसमान समेटे हुए।

 भावनाओं की छलकती सरिता नेत्रों में लिए।


 *उठो! बढ़ो*! अपनी शक्ति पहचानो,अपने नभ को तोलो।

 विराट जगत की स्वामिनी हो तुम,बंद हैं कपाट,अब खोलो। 

बहुत सो चुकीं, बहुत रो चुकीं बहुत छलयात्री बन चुकीं तुम। 

बहुत रहीं मौन व्यथित, वेदना त्याग,बनालो नया जीवटतुम! 


साजिशों से घिरीं, बंदिशों में बंधी,रहीं गुमराहगलत राहोंमें। 

अंत करो! इस भेद नीति का, करो मेधा ज्वलंत मशालों में।  

उठाना ही होगा, पहला चरणअपनी आस्था विश्चास से।

बचाने अस्तित्व अपना ,हां जूझना पड़ेगा सामने डर से। 

  

सभी मत, भ्रम, लालच,मोह -माया स्वार्थों को त्यागो तुम। 

अबला नहीं,कर्तव्य व शक्ति कीअपूर्व सामर्थ्य हो तुम। 

परछाइयों से बाहर निकल। अपना आशियाँ बनाना होगा। 

लगेगा पगपग अड़ंगा तुमको उनसे टकराना होगा । 


ना घबराना,हुलसाना आशाएं, अपेक्षाएं,आस्थाऐं तलाशना।

धरा से आकाश तक की यात्रा है तुमको अब करना। 

लो कुछ कर दिखाने का *संकल्प* बनो *अग्निशिखा*! 

बनके प्रचंड देवी दुर्गामां जैसी अंत करो राह के राक्षसों का। 

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अलका मधुसूदन पटेल

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 आस्थाऔं के बीज

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  मेरे पास ढेर से

 आस्थाऔं के बीज हैं

  इन बीजों को

 अपनी मुट्टियों में भर कर

 छिटकते हुये  चलना तुम

 सुनो,,,,

मेरे पास एक तेज़ धारदार

विद्रोह का हंसियाँ भी है

जहाँ कहीं भी तुम्हेंं  दिखाई दे

बारुद की फसल़

दुई और द्वैष की फसल

 अंहकार की फ़सल

जहाँ हो जुल्म बलात्कार

देश द्रोही चाटुकार

इस तेज़धार हँसिया से काट कर 

उस सुनी धरती पर

आस्थाऔं के बीज़ छिड़क देना......

SONIYA