*समवेत स्वर* चन्द्ररेखा सिंह
जीवन को समवेत स्वरों मे गाओ तो ,पीड़ा से दुखते मन को सहलाओ तो ,
अपनो मे तो अपनापन पा लेते सब ,तुम ग़ैरों मे भी अपनापन पाओ तो ,
जीने का अन्दाज़ नया पा जाओगे ।
अधियारों से भी प्रकाशकण फूट रहे इन्हे तराशो , काट छांट कुछ नया गढ़ो ।
इकलेपन की स्याही और हुई गाढ़ी ,लसन्नाटों ने लिखा बहुतकुछ उसे पढ़ो ,
अपनो बेगानों का सच पा जाओगे ।
अपनी सीढ़ी स्वयं बनाओ और चढ़ो ,अपनी राहें स्वयं बनाओ और बढ़ो ,
हार जीत के पैमाने सब बदल चुके ,संघर्षो का शोर कह रहा लड़ो लड़ो ,
विजयवधू की वरमाला पा जाओगे ।
अपनी लघुता का अनुमान लगाओ तो ,मन से प्रभुता का अभिमान हटाओ तो ,
ऊंचाई पर रहोभले नत शीष रखो ,कल्याणी धरती का दर्द मिटाओ तो ,
सत् चित् औ आनन्द सभी पा जाओगे ।
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लेखिका श्रींमती अलका मधुसूदन पटेल
1 ज्ञानदीप
अंतस का दीप जलाओ , तुम प्रकाशपुंज बनो।तिमिर छाया है चहुँ ओर, किरण आलोक बनो।
अपनी राह बनाओ और बढ़ो ,बनो अग्निशिखा,संघर्षों से लड़ो औ नित बढ़कर उत्कृष्टता चुनो।
अंधेरे तो हैं, घेरेंगे, रहेंगे, वे बार-बार टकराएंगे ।कुटिलता से हम डरेंगे ,हर पल उतना डराएंगे।
अंधेरे केवल रातके नहीं,मनके अंदर भी होते हैं,दूरकरो प्रज्ञा से ,साहसी बन विश्वास जगाएंगे।
वेदना के स्वर भूलकर ,समवेत गीत गुनगुनाना।सन्नाटों को हंसी खुशी के, सुपलों में है बदलना।
दुर्बलता नहीं,सबलता सेअब कदमों को बढ़ाना,सपने पीछे छूट गए ,अब है विजयरथ ही पाना।
अपनों में बेगाना, गैरों में अपनेपन को पाओगे।स्व प्रभुता-लघुता में रचकर स्नेहदीप जलाओगे।
ऊंचाई पर रहकर भी, जमीन में बोध फैलाओगे , अपनी खुशी ,धरणी में बांट आनंदमय बनाओगे।
नन्हा सा दीपक तुम्हारा,देखो प्रकाश बांट रहा।ज्योतिअखंड बन सुंदर, ज्ञानचक्षुओं से हो हरा।
होँगे दूर अंधियारे,ज्योति से तुम्हारी हो पल्लवित बने प्रकाश दीपमाला ,हैं, देखो दे रहे उजियारा।
2 'विजित'
करना होगा संघर्ष ,पाने को नवउत्कर्ष।
चुनौतीसे जो जुझौगे , तब चुन पाओगे हर्ष।
सत्य से हटना नहीं, दम्भ से घिरना नहीँ।
लालसाएं रोकेंगी पथ, लेनी होगी तुम्हें शपथ।
मार्गच्युत होना नहीं, बाधाओंसे डरना नहीं।
संकट करेंगे विचलित, करना स्व प्रकाशित।
अपनी दिशा पहचानो, लक्ष्य उद्देश्य बनाओ।
निर्बंध निर्बाध बढ़ो, उन्नति की सीढ़ी चढ़ो।
ध्येय-अविरल लक्षित जिंदगी सहज 'विजित'।
3 *रंगों की कैसी है ये बौछार*
अब त्यौहार कहाँ रहा रे भाई, कहाँ रहा है त्यौहार।
भाव भंगिमा शब्द बदलते जाते नहीं बचा ब्यौहार।
मन अब बदल चले है छद्म रंगों से बन रहे रंगदार।
मिलते अमर्यादित आचरण गंदे शब्दों की बौछार।
राजनीति के रंगों ने ह्रदय बदला-बदल दिया है प्यार।
सीधे सादे लोग भी अनजाने झेल रहे हैं वार पे वार।
नित कड़वी बोली,होती फीकी गुजिया ओ रंग-धार।
मिठाई बदलती खटाई में ,बदरंग हो बनते हथियार।
अब त्यौहार कहाँ रहा रे भाई , कहाँ रहा है त्यौहार।
बुनने होंगें फिर सतरंगी सपने, वही मान ओ मनुहार।
कल्पनाओं के क्षितिजों से ,अनुबंधों के सुंदर से हार।
चलो फिर ढूढें रस रंगों के, रिश्ते नए संकल्पों केद्वार।
स्वाद बदलें जिंदगी का, जीभ का ,मिलें नए आचार।
ख़ुदी को करें बुलंद ,लौटा लाएं वही रंगीला त्यौहार।
आएगी फिर वही सूंदर होली की रंग बिरंगी बौछार ।
अलका मधुसूदन पटेल ।
खिलकर सुमन,बोल रहे खुशबू से,खुशबू बिखरे , कह उठी भौरों से।
भौंरे करें गुंजन,बोलें तितलियों से,तितली उड़ी कहने अम्बर मेघों से।
बदरेझिलमिल,भीगाआंगन जलसे,आया सावन, हां नागपंचमी आयी।
जन्मदिवस की सुखद बेला हैआयी,अर्पणकर पुष्प,अद्भुत शक्ति हैपाई।
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