Thursday, March 26, 2009

*नारी* ब्लॉग की सूत्रधार "रचनाजी एवं आपके सभी सहयोगी सदस्यों" को "हिंदी नव संवत्सर" की पूर्व संध्या पर *नारी* के एक वर्ष पूरा होने की "हार्दिक बधाई व असंख्य शुभकामनाएँ". श्रंखलाएं हों पगों में ,गीत गति में है सृजन का,है कहाँ फुर्सत पलक को ,नीर बरसाते नयन का,उठो आगे बढो ,ये समय है कुछ कर दिखाने का. स्मरण रहे ,जब सागर में आये झोंके ,किसमें ताकत आये रोके,शोषित सूखी सरिताओं के ,आहों का अरमान उठा है,लहरों में तूफ़ान उठा है............सबको नमन.*अलका मधुसूदन पटेल*
March 26, 2009 5:23 PM

Sunday, March 22, 2009

*तुम बोलोगी ,मुख खोलोगी ,तभी तो जमाना बदलेगा *
नव जागरण की अपार संभावनाएं हैं.
हजारों साल के शोषण के बाद भारतीय महिला में एक नयी जाग्रति की लहर आई है. वो अपने अस्तित्व, अधिकार, सहभागिता के लिए निरंतर चैतन्य हो रही है जो उसके सोच-विचार में एक अभूतपूर्व परिवर्तन लाने के साथ एक नया द्रष्टिकोण लेकर आई है, वह स्वर मुखर करने का साहस जुटा रही है. आत्म-विश्वास, अपनी शक्ति पहचानने की जरूरत है , निःसंकोच अपनी आवाज बुलंद करे जाग्रत हों. अभी तक भारतीय महिलाओं को निरक्षरता-अंधविश्वास-दीनता की चाहरदीवारी में रखा गया जिसके कारण वे अपना आत्म-विश्वास, अपनी शक्ति को भूल चुकी हैं. भारत के मजबूत भविष्य के लिए महिलाओं को मजबूत करना होगा. भारत के नए भविष्य की मुख्य धूरी हैं. उन तक सही रचनात्मक संसाधनों, उनके उपयोगी अधिकार ,पर्याप्त जानकारी पहुँचाना व उनकी समस्याओं को दूर करके, उनके विचारों-निर्णयों को मान्यता देना होगा. सामाजिक स्तर में क्रांतिकारी बदलाव के साथ जनसँख्या नियंत्रण,सही पोषण,सही शिक्षा व स्वास्थ्य की चुनौतियाँ का सफलतापूर्वक सामना करने की आवश्यकता है. महिलाऐं अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह समझती हैं समर्पित भाव से कार्य करती हैं .उनका संघर्ष शुरू हुआ है, अनेक स्वार्थी लोग अभी भी उनके अधिकारों-विचारों का विरोध कर रहे है. कुछ कटिबद्ध लोग व संगठन सभी स्तर पर उनके साथ उठ खड़े हुए हैं व उनको पर्याप्त जानकारी+ अधिकारों से जाग्रत कर रहे हैं.
*नेहरूजी का कथन है अगर आप किसी राष्ट्र के बारे में मेरी राय जानना चाहते हैं तो मुझे उस देश में महिलाओं की स्थिति के बारे में बताएं.*
अलका मधुसूदन पटेल -

Friday, March 13, 2009

पुस्तक *ईश्वर की नियामत पुत्री*-*दी डाटर्स आर ग्रेट* के कुछ अंश महत्व पूर्ण प्रश्न ?वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में अति संवेदनशील,ज्वलंत,विचारणीय प्रश्न बार-बार सामने आता है. समग्र संसार की धूरी हमारी "बेटियाँ-नारी शक्ति" क्यों जन्म से इतनी असहाय ,त्याज्य,तिरस्कृत,उपेक्षिता बनाकर उदासीनता या हीनता से देखी जाने लगी है. गर्भ में नष्ट करने वाली ये घ्रणा करने योग्य अमानुषिक घटनाएँ, समाज में व्याप्त असभ्य अशम्य ,अविश्वसनीय दुर्व्यवहार ,अमानवीय, अशोचनीय गंभीर अपराधिक घटनाएँ ,दहेज़ हत्याएं, बलात्कार आदि अनेक अपराध निरंतर बढते जा रहे हैं. समस्त प्रयास होने के बाद भी कमी आने के बदले ज्यादा होते जाते हैं.इसको कम करने के लिए इसकी शुरुआत बच्ची के जन्म के साथ ही करनी पड़ेगी, तब ही इस समस्या का समाधान का प्रारंभ हो सकेगा.सामाजिक संतुलन लगातार बिगड़ रहा है. समाज में लड़कियों-लड़कों का अनुपात ८००-१००० पहुँच रहा है. यह अंतर समाज के हर वर्ग,जाति,धर्मं में चिंतनीय रूप से परिलक्षित हो रहा है. सोचना और देखना ये है कि समाज में जागरूक नव-चेतना कैसे लाई जाये. लगातार बढती घरेलू हिंसा को रोकने के लिए क्या किया जाये.क्योंकि इसकी शुरुआत तो उसके पैदा होने के पहले से ही उसके अपने जीवन में शुरू हो जाती है.हम जानते हैं हमारी पुत्रियों के साथ इस दुनिया में पैदा होते ही दुर्व्यवहार शुरू हो जाते हैं. जन्म लेते ही उसके खुद के परिवार में असहयोग,नकारात्मकता, पुत्र की तुलना में संकुचित भेदभाव ,असहनीय मानसिक-शारीरिक-उत्पीडन-शोषण-आर्थिक-अवमूल्यन होने लगता है. शिक्षा के क्षेत्र में भी भेद रहता है. अक्सर पुत्र से अधिक योग्यता रखने वाली पुत्री को मनचाही पढाई करने का मौका नहीं मिल पाता.गंभीर विचारणीय प्रश्न है कि हमारे समाज में स्वयं के "परिवार में पुरुष वर्ग की तुलना में घर की महिलाऐं" ही बेटे-बेटियों में अंतर करती हैं. प्रगतिशील समाज में भी बिटिया को पूरे अधिकार नहीं मिल रहे ,क्या अपने परिवार में लड़की का रूप लेने से ही उसका पद नीचा हो जाता है. अपनी बेटी को न्यायोचित अधिकार स्नेह-संरक्षण दिलाने का प्रारंभ जब तक उसके पैदा होते ही नहीं होगा ,समस्या बढती जायेगी. इसके निदान-समाधान खोजने होंगे. जागरूक-प्रबुद्ध लोगों को एक मंच पर आकर आपसी सहयोग से कार्य करने होंगे.आधुनिक समाज कितनी तेजी से परिवर्तित हो रहा है हर क्षेत्र में प्रगति दिखती है पर यहाँ गिरावट बढती जाती है. स्रष्टि का ये अद्भुत वरदान नारीस्वरूप में जन्म लेकर जीने का अधिकार नहीं पा रहा है. पृथ्वी पर असंतुलन होने से क्या होगा ,सोचा नहीं जा सकता. इस अकल्पनीय परिस्थिति का जिम्मेदार कौन ? ********************************************************************* "ईश्वर का वरदान है बेटी"(THE DAUGHTERS ARE GREAT)*जब जब तुम मेरे ऊपर अपना माथा रखकर कहती हो *माँ*,तो वहां प्रतिघोष गूँज उठता है-----संपूर्ण स्रष्टि की गुहा में. सघन गहराइयों से भेदकर आता ,जीवन के समस्त स्नेह भावों के अर्क सा.वह शब्द प्यारा सा नन्हा सा,और ले उठता है हिलोर,मन मेरा कोमलता सा.*पुत्री का सर्वप्रथम प्रिय रूप वही है,जब वह नवजात स्नेही बेटी कोमल पुष्प सद्र्श भूमिष्ट होकर माँ-पिता को आल्हादित करती है. जन्म से ही कन्या का रूप बहुत भोला प्यारा होता है. हमारी ही संतान बेटी का नन्हा स्वरुप हमारे मन में पुत्र से कोई भेद उत्पन्न नहीं कराता . भारत में तो पुरातन से वर्तमान संस्कृति में पुत्री को परिवार में उच्च स्थान प्रदान किया जाता रहा है. माँ-पिता की छत्रछाया में रहकर वह सदैव उनके निकटस्थ बनी रहती है. बचपन से बड़े होने तक वह उनकी ही नहीं अपने सभी परिजनों की आज्ञापालन करके महान कर्तव्यों का पालन निःस्वार्थ करके योग्य सिध्द होती है. समुचित संस्कार मिलने से समस्त कुटुंब के प्रति अपनी स्नेहिल भावनाओं के साथ सदैव समर्पित बनी रहती है. आदर्श परिवारों में वह माता-पिता के पुत्र जैसे ही बल्कि उससे अधिक वात्सल्य प्राप्त करती है. बाल्य अवस्था के क्रीडा-कौतुक से सबकी प्रिय होती है.अपने अग्रज-अनुज भाइयों जितनी ही सबको प्रिय होती है. लक्ष्मी स्वरूपा बेटी परिवार में ममता-स्नेह की मधुर गंध महकाती है. बाल्यकाल से लाडली होने के साथ परिवार के हर सदस्य का सहारा बन जाती है परार्थ सहयोग को तत्पर. *जिसे तुम समझे हो अभिशाप,जगत की ज्वालाओं का मूल.ईश का वह रहस्य वरदान , प्रिये मत जाओ इसको भूल .* (A DAUGHTER IS CROWN OF HER FATHER-FAMILY)प्रेमपात्रा बिटिया तो समर्पिता बेटी है,स्नेहमयी भगिनी है,निमिष्मात्र में स्व को विस्मृत करके अग्निसाक्षी मानकर दूसरे सर्वथा अनजाने कुल को अपने को अर्पित कर देती है. पत्नी बनकर कर्त्तव्यशील श्वसुरकुल के लिए समर्पित बहू बनकर सबको आकर्षित करके नए परिवार-परिवेश में भी सबकी लाडली बन जाती है वही उसका घर बन जाता है.. केवल एक नहीं दो परिवारों की शोभा बन जाती है.*ग्रहेषु तनया भूषा ,भूषा संपत्सुपंडिता: ,पुसाम भूषाम सद्बुद्धि: स्त्रीनाम भूषाम सलज्जता.* भविष्य के नागरिकों की माता बनकर संसार का सर्वोच्च आसन ग्रहण करती है. माँ का अतुलनीय स्वरुप आजीवन प्रदर्शित करती है, संपूर्ण परिवार के लिए एक संस्था ही होती है. विश्वासपूर्वक स्नेहार्पित शांति व दया की देवी होती है. उसकी उत्सर्गमयी भावनाओं ने ही उसे प्राचीनकाल से देवितुल्या मान लिया है. *(STERN DAUGHTER IS THE VOICE OF GOD ,'O' DUTY ! OF THAT NAME THOU LOVE ,WHO ACT A LIGHT OF GUIDE ,A ROD ,TO CHECK THE ERRING &REPROVE)*पुत्री के आत्म-विश्वास और आत्मसंतोष से परिपूर्ण व्यक्तित्व द्वारा वह किसी भी विशिष्ठ परिस्थिति में सभी परिजनों के लिए ह्रदय से सेवानिष्ठ बनी रहती है.आत्म-अनुशासन व स्वनियंत्रण उसके मुख्य गुण हैं. उसका जीवन ही दो कुलों को जोडकर गौरवान्वित करना बन जाता है.घनीभूत सहजता ,सरल ह्रदय पुत्री का जीवन ही अपनों के लिए न्यौछावर है. पुत्री की नैसर्गिक प्रवर्ति ही कोमलता से ओत-प्रोत होती है. उसे दैहिक व वैचारिक कैद में नहीं सामंजस्य में रखने की जरुरत है. उसका व्यक्तित्व जितना स्वतंत्र विकासमयी ,श्रेष्ट शिक्षित होगा वह दोनों कुलों में अपनी कीर्ति पताका फैलाएगी.प्रखर बनकर वह अपना ही नहीं अपने परिजनों का नाम रोशन करती है व उनसे आजीवन जुडी रहती है. नए परिवेश या परिवार में जाकर भी अपने कर्तव्यों को नहीं भूला करती. हम सबके समक्ष वर्तमान परिप्रेक्ष्य सिद्ध करता है कि अपने स्वाभाविक गुणों के कारण *पुत्री*- *पुत्रों* से अधिक परिवार के साथ सदैव जुडी रहती है ,चाहे जहाँ रहे वह सबका ध्यान रखती है. जबकि पुत्र बहुत बार कर्त्तव्य विमुख होकर अपने आश्रितों को छोड़ देते हैं. (तब हमारे मन में, हमारे परिवार में उसके बचपन से बड़े होने तक दोहरापन ,ये भेदभाव क्यों ?) समाज में अपने सद्गुणों, सुह्रदयता,सेवापरायणता,परार्थता व संस्कारी संवेदनशील स्वभाव से मुख्य धूरी बनी रहती है. अपने ही नहीं सबके लिए आनंद-वेदना ,सुख-दुःख,सुदिन-दुर्दिन ,निराशा-आशा,उत्साह-निरुत्साह की सहभागिनी व संबल बनी रहती है. सही न्याय व मांगल्य रूप से परिजनों का साथ आजीवन देती है.भारत ही नहीं सारे संसार में जाने कितने उदाहरण मिल जायेंगे की एक पुत्री ने अपना जीवन अपना ना बनाकर अपने परिवार के लिए होम कर दिया. बहुत ऊँचाई पर पहुँच कर भी स्वयं को परिजनों को समर्पित करके रखा .माता-पिता ,भाई-बहिनों की खातिर अपने जीवन को बिसर कर रखा.यही नहीं आवश्यकता पड़ने पर अपने परिवार की खातिर अपने सुखों को तिलांजलि देने की हिम्मत रखती है. उसके उत्सर्गमयी उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है.अपना खुद का नया जीवन-परिवार नहीं बसाकर अपने माँ-पिता-परिजनों की आजीवन सेवा समर्पिता बनी है व बनती है. अगर संपूर्ण चिंतन मनन करके सोचा जाये तो वास्तविकता में आज परिवार में पुत्री जितनी जिम्मेदारी से अपने माँ-पिता-बंधुओं का ख्याल उनके वृद्धावस्था तक रखती है, यह उसकी विशेषता है. इसमें कही कमी आज भी नहीं दिखलाई देती है. क्या हम अपनी पुत्री की इस विशिष्टता की महत्ता को नहीं पहचानते जो अपने परिवार में ही उसके अधिकारों से उसको वंचित करके उसके उज्जवल भविष्य में रोड़ा बनते हैं.क्या ऐसे अतुलनीय उदाहरण प्रस्तुत करती बेटी केसाथ अन्याय या सामाजिक अंतर सर्वथा अनुचित नहीं ? (DAUGHTERS HEARTS ARE ALWAYS SOFT & MEN LEARN TENDERNESS FROM THEM)प्राकृतिक रूप से प्राप्य शारीरिक कोमलता पुत्री के जीवन का अभिशाप नहीं वरदान है यही विभिन्नता कुछ हद में कर्मक्षेत्र में उसे पुत्र से अलग करते है, क्योंकि सारे जगत का सञ्चालन नियमबद्ध है अतः प्रक्रतिजन्य विशेषता को तो स्त्रियोचित सम्मान देना चाहिए ,परिवार में बेटी के साथ अच्छा आचार-विचार रखना चाहिए न कि उसमे हीनता का भाव भरना चाहिए.संसार का सबसे दुरूह-दुष्कर गुरुतर *नव-सृजन* कि अद्भुत क्षमता भगवान ने बालिकाओं को दी है. उसके बिना जगत का संचालन ही रुक जायेगा. प्रकृति का सर्वश्रेष्ट मात्रत्व का दुर्लभ गुण उसको मिला है. अपना जीवन दांव पर लगाकर वह अपनी सन्तान को जन्म देकर वह संसार चलाने का भार उठाती है ,इसे उसकी कमजोरी नहीं मानकर समाज को तो उसका उरिणी होना चाहिए. सारी सुविधाएँ सामने रख देना चाहिए. उसकी पूरी सुरक्षा का सही निर्वहन भी नियमपूर्वक करना परिवार-समाज का सबसे बड़ा दायित्व व नैतिक जिम्मेदारी है. जिस परिवार में पुत्री ने जन्म लिया है पहले वहीँ उसका स्थान सम्मानित रहे ,बालिका या बेटी होने के कारण संकुचित या निरापद न बने ,विशेष ध्यान रहना चाहिए. स्वयं उसके परिवार में यदि भेद होगा, शोषण होगा तो उसका जीवन बचपन से पिछड़ जायेगा. हाँ उसको यदि परिवार में पूरा महत्व-सम्मान-अधिकार मिलेगा तो सामाजिक जन-चेतना बढेगी. नयी दिशा मिलेगी. पुत्र से तुलनात्मक कोमल शारीरिक संगठन के कारण ही उन्हें एक सावधान संरक्षक की जरूरत जरूर होती है पर किसी दबाव या वैचारिक-शारीरिक-आर्थिक परतंत्रता कि नहीं. *पिता रक्षति कौमारे,भरता रक्षति यौवने..रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा, नः स्त्री स्वतंत्र्य महर्ति.*प्राचीनकाल से ही चली आ रही परम्पराओं में पुत्री का स्थान ना अपने परिवार में बल्कि सारे समाज में उच्च रहा है ,अति स्नेह संरक्षण आदर प्राप्त होता रहा है. नारी शक्ति की महिमा उसे देवी स्वरूपा मानकर की गई है. उसे समुचित लालन-पालन के साथ उसकी योग्यता के अनुसार इतना योग्य बना देना चाहिए कि वह स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर आर्थिक स्वावलंबी बने.आत्म-विश्वासी बने. वर्त्तमान समय को देखते हुए यही आज की सबसे बड़ी जरूरत है. बालिका के परिवार में आने से समाज में अपना एवं उसका स्थान ऊँचा बनाने में परिवार का कर्त्तव्य होता है. जब वह इतनी योग्य बना दी जायेगी तो समाज में प्रचलित बुराइयाँ व लड़की के प्रति प्रचलित सारी विषमता-असमानता हट जायेंगे. पूर्ण शिक्षित व जागरूक होकर, अपना अच्छा-बुरा समझ सकने वाली बेटी के साथ तभी न्यायोचित व्यवहार हो सकेगा.समाज में वह योग्य पुत्री,पत्नी,बहू,माँ बनकर सम्माननीय जीवन प्राप्त कर सकेगी व हमारे परिवार में पुत्री जन्म की खुशियाँ मनाई जा सकेंगी समाज में लोगों को दोष देने के बदले अच्छे कार्यों का प्रारंभ हमें अपने घरों से ही करना होगा कटी-बद्ध होना होगा. तब हमारी बेटी के साथ विद्वेष.भेद.शोषण,अन्याय या गलत कार्य करने के पहले दूसरे लोगों को सोचना होगा.साथ ही उसमे इतना आत्म-विश्वास व योग्यता आ जायेगी कि वह स्वयं अपने पर होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाकर अपना उत्कर्ष कर पायेगी. *ईश्वर की नियामत को दिव्य बनाएं, अपनी प्यारी बेटी को सम्मान दिलाएं.*
"या पुत्री: पूज्यमाना तु देविदीना तु पुर्वत:. यज्ञ: भाग: स्वयं ध्रते यह वामा तु प्रकीर्तिता."
********************************************************************************************************************************परिवर्तन* अपने प्रति विसंगतियों एवं असामान्य व्यवहार के साथ उपरोक्त अनेक कारणों से हमारी वरदान स्वरुपा बेटी कहीं विद्रोह कर उठी है तो कहीं जाग्रत होकर आगे आने को आतुर. जो मनुष्य के स्वभाव का प्राकृतिक रूप है.१. अपना अस्तित्व अधिकार,अपनी विलक्षण क्षमताओं को जानकर उसका स्व जाग्रत हो गया है एवं वह विद्रोही ही नही कही आक्रामक भी हो गई है. तेजस्वी होती जाती है.२.अपनी अस्मिता ,सम्मान के लिए उसने अब सर झुकाकर नहीं आत्म-निर्भर होकर स्वाभिमानी+साहसी बनकर जीना सीख लिया जाग्रत होकर उठ खड़ी हुई है. विद्वजनों के अनुसार ,जो कर झुलाएं पालना, वही जगत पर शासन करें.३.अपने उपर अत्याचारों ,अनाचारों ,विद्वेष से घबराकर ,दूसरों के द्वारा सताए जानेपर ,स्वयं को बोझ माने जाने पर महिला शक्ति कही-कही अपनी नारीसुलभ कोमलता को भूल क्षुभित होकर अपनी मूल प्रवर्तियाँ आदर्श ,त्याग,ममता,कर्त्तव्य,दायित्व,सहृदयता,सदाशयता, सेवा, शिष्टाचार आदि अपने मानसिक क्लेश के कारण भूलती जा रही है. ये परिवर्तन उसके व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं होते पर कठिन परिस्थितियों में जब सारे दोष उस पर मढ़ दिए जाते हैं तो वो बदल जाती है.. सद्भावनापूर्वक विचार करके परिवर्तनों का निदान संभव है.३.पूर्ण शिक्षित , स्वावलंबी ,आर्थिक आत्मनिर्भर ,सुव्यवस्थित होकर अबला ने सबला बनाने की ओर कदम बढा लिए हैं .चैतन्य होकर आगे आने से पारिवारिक दरारें-मतभेद द्रष्टिगत होने लगे हैं. क्योंकि उसके आर्थिक स्वावलंबी होने के साथ उसमे जो आत्म-विश्वास आता है वह रूढिगत विचार वाले कुछ परिजनों का अच्छा नहीं लगता.४.कहीं परिजनों से, समाज से सुद्रढ़ता या सहारा न मिलने पर वह अपने आप को पाश्चात्य संस्कृति में ढाल रही है. अति महत्वकांशी होकर संस्कार भूल रही है. तो उसे भारतीय संस्कृति का अवमूल्यन कहा जा रहा है.जहाँ आपसी समझौते से निराकरण संभव है.५.कौटुम्बिक प्रणालियों का विघटन ,एकाकी परिवारों का चलन ,वरिष्ट परिजनों का असम्मान ,आपसी रिश्तों का अवमूल्यन इन्ही आपसी तालमेल की कमी व जनरेशन गैप के कारण हो रहा है.समाज में कहाँ किसका कितना दोष है ,इसे अलग हटाकर ,विचार करके आपस में एकजुट-एकमत होकर चिंतन करके मंथन की जरूरत है. बेहतर उपायों-उपचारों द्वारा नारी शक्ति के भले के लिए सभी को समाज में फैलती बुराइयों-कठिनाइयों को दूर करने की सघन आवश्यकता है.स्रष्टि की जगतदायिनी ,समाज में परिवार का संवर्धन करनेवाली ,अपने परिजनों को रचनात्मक-भावनात्मक संबंधों द्वारा अभिन्न रखनेवाली विलक्षण गुणों वाली बेटी को अपने स्नेही पुत्र के बराबर दर्जा देना ही होगा.उसके जन्म से ही रक्षा-अन्वेषण का भार मुक्त ह्रदय से स्वीकारना होगा. जन-जन को जाग्रत करने का, बेटी को पूरे अधिकार देने का गुरुतर भार उसके जन्म देने वाले परिवार से ही शुरू करके समाज में लाना होगा. प्यार-सत्कार ही काफी नहीं उच्च-शिक्षिता संपूर्ण योग्य बनाकर पुत्र-पुत्री के बीच बिना कोई भेद किये आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर करना होगा. विशाल ह्रदय होकर जब हम अपनी बेटी को सुयोग्य बनाकर गर्व करेंगे तो समाज में चारों ओर छाया अंधकार अपने आप रोशनी की तरफ बढेगा .पुत्री भी अपनी आभा फैलाकर नई उडान को बढेगी. भगवान के प्रक्रतिजन्य आशीर्वाद को सहानुभूति से नहीं सद्गुणों से ज्योतिर्मयी बनाना होगा. माँ तेरे हाथों में मेरा जीवन,दे प्राणों का दान.शिक्षारूपी पंख लगा दे , भरूं गगन में उडान. चहक-चहक करउडूं,गगनसे चाँद सितारे लाऊं.उजियारी फैलाऊँगी माँ , मत ले मेरी जान. लेखिका--अलका मधुसूदन पटेल(ये मेरा अपना मौलिक लेख है, मेरी प्रकाशनाधीन पुस्तक *भगवान का तो वरदान है बेटी* के कुछ अंश) ********************************************************************************************************************************
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Monday, March 9, 2009


*अपना रास्ता बनाना होगा*


बहुत सो चुकीं बहुत रो चुकीं,जागो अब सोने का समय नहीं है।


जगना ही नहीं जगाना होगा , अपना मान स्वयं बढ़ाना होगा।


अपना रास्ता बनाना होगा ----------


इक्कीसवीं शताब्दी की चौखट पर कदम रख दिया है तुमने।


आशा, विश्वास, प्रगति का अग्नि-दीपक जला दिया है तुमने।


सजग सरल,मुदित म्रदुल सपने, कर्मठ स्वस्थ तन लिए हुए।


करों में कोमल सुमन,पुलकित मन नई आकांक्षाएं लिए हुए।


होठों से बरसे नेहराग औ मुठ्ठियों में आसमान समेटे हुए।


भावनाओं की छलकती सरिता,नेत्रों में अथाह-समुद्र लिए हुए।


उठो!आगे बढो!अपनी शक्ति पहचानो,अपने नभ को तोलो।


विराट जगत की स्वामिनी हो तुम,बंद हैं द्वार अब खोलो।


विश्वास करो तुम्हारी आस्था भी लहलहाएगी एक दिन।


आत्म-सम्मान से तुम्हारी जिंदगी जगमगाएगी एक दिन।


संभलो पहिला पग बढ़ाओ ,न झिझको अब एक भी क्षण।


अपनी शक्ति-मेधा की प्रज्वलित कर दो अब नई किरण।


बहुत सो चुकीं बहुत रो चुकीं ,बहुत छली जा चुकी हो तुम।


साजिशों में घिरीं,बंदिशों में बंधी रहीं,होतीं गुमराह रही तुम।


अंत करो इस भेद नीति का, उठाना ही होगा पहिला कदम।


न मिले प्रेम से सत्कार,हक़ छीनने को सजग होजाओ तुम।


अपना झगडा कटु विषमता चाटुकारिता को त्यागना होगा।


अस्तित्व अपना बचाने खातिर नितचुनौती से जूझना होगा।


दहेज़,बलात्कार,भ्रूणऔआत्महत्या शब्दकोश से मिटाना होगा।


गलत प्रथाओं , रुढियों ,झूठे रस्मो-रिवाजों को मिटाना होगा।


सौंदर्य की प्रतिमूर्ती तो हो पर न बनो किसी की कठपुतली तुम।


गलत विज्ञापनों प्रतियोगिताओं,पाश्चात्यता के चोंचलों से बचो तुम।


शाश्वत,सुसंस्कृत अस्मिता औ गौरव अपने में समेटे रहो तुम।


सभी मद, भ्रम,मोह माया स्वार्थों को धूमिल कर दो अब तुम।


अभी तो जीवन पथ नया मिला है सफ़र लम्बा है,


चलते जाना है मीलों दूर----- बहुत दूर-------------,


अग्निशिखा बनके, अंधेरे दूर करके,


घिरी परछाइयों से बाहर निकल के,


अपना आन्शियाँ बनाना होगा,अपना रास्ता चुनना होगा,


लगे पग-पग पर बाधा-अढंगा, लेना पड़े चाहे कोई पंगा।


नहीं घबराना , न टकराना न हुलसाना,


अपनी आस्थाओं,अपेक्षाओं को तलाशना,


ये नई सदी है बहिनों--------


अपना रास्ता अपने आप ही बनाना होगा।


अपने इन्द्रधनुष के रंगों को चुनना होगा।


आओ कदम दर कदम बढाओ कुछ करके अब दिखाओ।


मन के संकल्पों को लिया बस अब आगे बढ़ते ही जाओ।


*अलका मधुसूदन पटेल.*