Saturday, July 17, 2010

सामाजिक सरोकार
*अपनी संपूर्ण सुरक्षा की पूर्ण चैतन्यता-जागरूकता+कानून सम्बन्धी जानकारी*.
परिवारों में विशेषकर भारतवर्ष में बेटी के जन्म लेते ही ये बात बचपन से उसके मन में भर दी जाती है कि उसके भाई की तुलना में वो शारीरिक स्वरुप में कमजोर है ,बहुत प्रकार के अवरोध(रोक) उसकी कम उम्र से ही लगाना प्रारंभ हो जाते हैं .लड़के की तुलना में उसको कुछ विशेष सावधानी-देखरेख से ही पाला जाता है. जो उसकी मानसिकता को कमजोर बना देते हैं. छोटी सी बच्ची अपने घर में ही अपने आपको हीन या किसी कमी से ग्रस्त मानने लगती है क्योंकि उसके लिए जीवन के हर क्षेत्र में अलग-अलग प्रकार से रोक लगने से उसकी स्वतंत्रता में कमी-बाधक हो जाती है.
बिना जाने ही समाज के प्रति या अपने आसपास वालों के प्रति उसके मन में एक प्रकार चिंता व जाना-अनजाना डर या अलगाव समां जाता है.
ये बिना किसी भेद भाव से समाज के हर वर्ग के लगभग हर छोटे-बड़े ,निम्नवर्गीय-मध्यमवर्गीय-उच्चवर्गीय ,हम-आपके सबके परिवारों में होता है. अधिकांश परिवार अपनी बेटी की सुरक्षा की द्रष्टि से उसपर रोक लगाने को अपने को मजबूर पाते हैं .इस सबके पीछे परिवार का उद्देश्य हर जगह अपनी बच्ची के साथ सिर्फ भेदभाव के लिए ही नहीं होता.व्यक्तिगत नहीं होकर कहीं निःस्वार्थ मजबूरी भी मानी जा सकती है या अपनी बेटी के प्रति अपनी सघन जिम्मेदारी-स्नेही उत्तरदायित्व भी.
हालाँकि हर बात में बारबार ऐसे अड़ंगे-थोड़ी समझ आने पर स्वाभाविक हमको, हमारी बेटियों या नारी शक्ति को अस्वीकार व असंतुष्ट-कुंठित बना देती है.
आज के विचार के अनुसार माना जाये तो घर की बिटिया को एक जिम्मेदार स्वस्थ नागरिक बनने की प्रक्रिया में यही से कमी आ जाती है.
सत्य है कि उसके मानवाधिकार का हनन भी शुरू हो जाता है.
पर इस सबके बीच हमें हमारे समाज के मूलभूत ढांचे के बारे में सोचना पड़ेगा व क्यों ऐसा हुआ है ,होता है या हो रहा है. क्यों ये असुरक्षा की भावना हमारे बीच इतनी बढ़ गई है ,जो सामाजिक परिवर्तन होने के बावजूद भी इतने पारिवारिक+सामाजिक बंधन हमारी नारी शक्ति के सामने खड़े हैं.
वास्तव में आवश्यकता है कि हमारे घर में बच्ची को उसके बचपन से ही मानसिक ही नहीं शारीरिक द्रष्टि से भी साहसिक प्रवृति का बनाया जाये. उसको पूरी वैचारिक स्वतंत्रता दी जाये.वो स्वयं अपनी बौद्धिक सामर्थ्य के अनुसार अपना सही निर्णय ले सकेगी .
अनेक तरीके हैं जिनके द्वारा वो अपने-आप को सुरक्षित रखने के साथ सावधान रख सकती है. सबसे बड़ी बात उसके मन में इस प्रकार का कोई भय न भरके उसे जागरूक और चैतन्य बनाया जाये .उसे अपने शरीर की प्राकृतिक संरचना के अनुसार क्या ध्यान व सावधानी रखनी चाहिए इसकी सही जानकारी दी जाये .
किन बातों व परिस्थितियों में निर्भय होकर संयम खोये बिना क्या कर सके. साथ ही अपने लिए बिना किसी के कहे उचित अनुचित की सीमा रेखा तय कर सकें. विशेषकर दिग्भ्रमित न हो. आत्मनिर्भर व योग्य शिक्षित होकर भी जरूरत पड़ने पर विवेक न खोकर अपनी रक्षा को सक्षम बने.
वैसे भी प्रेक्टिकल रूप से ये तो संभव ही नहीं है कि किसी बलात्कारी को या किसी हिंसात्मक व्यवहार को ,चाहे घरेलू हिंसा ही हो ,को कहीं रोका जा सके क्योंकि गलत या बलात हरकत करने वाले जरुरी नहीं है कि कही रास्ते में मिलें या रात को ही किसी भी उम्र की महिला या लड़कियों को मिलते हैं या मिलेंगे. यदि वो कही अकेली जाती है तो. ऐसे लोग तो अवसर देखते रहते हैं.
वे*घर-बाहर* कही भी ,कभी भी मिल सकते हैं.
कई उदाहरण सामने हैं कि *रक्षक भी भक्षक* बन जाते हैं.
वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है अपनी संपूर्ण सुरक्षा की पूर्ण चैतन्यता व जागरूकता+कानून सम्बन्धी जानकारी.
किसी भी बात की अधिक रोक-टोक लगाने के बदले नारी-शक्ति को किन्ही भी परिस्थितियों में अपनी सुरक्षा के लिए तैयार होना होगा ,साथ ही हमारे परिवार-समाज की युवतियों के साथ युवा शक्ति को भी सही दिशा-सही कार्यों की प्रेरणा मिलती रहे जो स्वयं आगे आकर इस तरह के कार्यों को रोकने के लिए अपनी पूरी सहभागिता प्रदान कर सकें.


अलका मधुसूदन पटेल ,*लेखिका-साहित्यकार*

4 comments:

Anonymous said...

"नारी-शक्ति को किन्ही भी परिस्थितियों में अपनी सुरक्षा के लिए तैयार होना होगा"
प्रेरक प्रसंग और अच्छा आलेख

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

Unknown said...

शानदार जानकारी, धन्यवाद! हो सके तो पढ़ने का कष्ट करें-
http://www.pravakta.com/?p=11515

स्त्री को दार्शनिक बना देना!

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
व्यक्ति जिस समाज, धर्म या संस्कृति में पल-बढकर बढा होता है, व्यक्ति का जिस प्रकार से समाजीकरण होता है, उससे उसके मनोमस्तिष्क में और गहरे में जाकर अवचेतन मन में अनेक प्रकार की झूठ, सच, भ्रम या काल्पनिक बातें स्थापित हो जाती हैं, जिन्हें वह अपनी आस्था और विश्वास से जोड लेता है। जब किन्हीं पस्थितियों या घटनाओं या इस समाज के दुष्ट एवं स्वार्थी लोगों के कारण व्यक्ति की आस्था और विश्वास हिलने लगते हैं, तो उसे अपनी आस्था, विश्वास और संवेदनाओं के साथ-साथ स्वयं के होने या नहीं होने पर ही शंकाएँ होने लगती हैं। इन हालातों में उसके मनोमस्तिष्‍क तथा हृदय के बीच अन्तर्द्वन्द्व चलने लगता है। फिर जो विचार मनोमस्तिष्‍क तथा हृदय के बीच उत्पन्न होते हैं, खण्डित होते हैं और धडाम से टूटते हैं, उन्हीं मनोभावों के अनुरूप ऐसे व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निर्मित या खण्डित होना शुरू हो जाता है। जिसके लिये वह व्यक्ति नहीं, बल्कि उसका परिवेश जिम्मेदार होता है।
स्त्री के मामले में स्थिति और भी अधिक दुःखद और विचारणीय है, क्योंकि पुरुष प्रधान समाज ने, स्वनिर्मित संस्कृति, नीति, धर्म, परम्पराओं आदि सभी के निर्वाह की सारी जिम्मेदारियाँ चालाकी और कूटनीतिक तरीक से स्त्री पर थोप दी हैं। कालान्तर में स्त्री ने भी इसे ही अपनी नियति समझ का स्वीकार लिया। ऐसे में जबकि एक स्त्री को जन्म से हमने ऐसा अवचेतन मन प्रदान किया; जहाँ स्त्री शोषित, दमित, निन्दित, हीन, नर्क का द्वार, पापिनी आदि नामों से अपमानित की गयी और उसकी भावनाएँ कुचली गयी है, वहीं दूसरी ओर सारे नियम-कानून, दिखावटी सिद्धान्त और नकाबपोस लोगों के बयान कहते हैं, कि स्त्री आजाद है, पुरुष के समकक्ष है, उसे वो सब हक-हकूक प्राप्त हैं, जो किसी भी पुरुष को प्राप्त हैं और जैसे ही कोई कोमलहृदया इन भ्रम-भ्रान्तियों में पडकर अपना वजूद ढँूढने का प्रयास करती है, तो अन्दर तक टूट का बिखर जाती है। उसके अरमानों को कुचल दिया जाता है, ऐसे में जो उसकी अवस्था (मनोशारीरिक स्थिति) निर्मित होती है, उसको भी हमने दार्शनिक कहकर अलंकारित कर दिया है। जबकि ऐसे व्यक्ति की जिस दशा को दार्शनिक कहा जाता है, असल में वह क्या होती है, इसे तो वही समझ सकता/सकती है, जो ऐसी स्थिति से मुकाबिल हो।

Unknown said...

अत्यंत खुबसूरत साहित्य |
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